हरित क्रांति का अर्थ एवं विशेषताएं लिखिए

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उन्नत बीजों, रासायनिक उर्वरकों, अच्छी सिंचाई व आधुनिक कृषि उपकरणों के उपयोग द्वारा कृषि उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन ही, हरित क्रांति है।

विश्व स्तर पर हरित क्रांति (Green Revolution at World Level)

सेम, हरित क्रांति की शुरुआत 1943 में हुई थी जब रॉक फेलर फाउण्डेशन (Rock Feller | Foundation) तथा मैक्सिको कृषि मंत्रालय (Mexican Ministry of Agriculture) ने एक संयुक्त अनुसंधान कार्यक्रम (rescarch programme) बनाया जिससे मैक्सिको की मूलभूत फसलों, मक्का, आलू व गेहूं की उत्पादकता बढ़ायी जा सके।

1944 में डॉ. नार्मन ई. बारलॉग (Dr. Norman E Borlaug) तथा इनके साथ तीन कृषि वैज्ञानिक (Agronomist) ने अनुसंधान प्रोग्राम के साथ जुड़ गये। इस कार्यक्रम का उद्देश्य फसल की लब्धि को सुधारना था। डॉ. बारलॉग ने गेहूँ की उच्च लब्धि जातियों को मैक्सिको में उगाया तत्पश्चात् उन्होंने ऐसे संकर उत्पन्न किये जो कि ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कर सके तथा उन्हें मैक्सिको के प्रत्येक वातावरण में उगाया जा सके। इन्हें नवीन गेहूँ (New wheat) कहा गया, जो कि उच्च लब्धि अनुकूलित, प्रतिबल सहिष्णु एवं शीघ्र विकसित होती है इससे मैक्सिको में गेहूँ की उपज 740Kg/ha (1945-46) से 1440 kg/ha (1957-58) हो गयी।

इन कार्यों के लिए डॉ. बारलॉग को 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) दिया गया। क्योंकि डॉ. बोरलॉग ने न केवल उच्च उत्पादकता की तकनीक ही विकसित की अपितु मानवतामय योगदान के लिए भूखे विश्व को उस समय भोजन दिया जबकि सम्पूर्ण विश्व में अकाल पूरी तरह अपनी जड़े फैला चुका था। डॉ. बारलॉग को हरितक्रांति के जनक (Father of Green revolution) के पद से सम्मानित किया गया।

भारत में हरित क्रांति (Green Revolution in India)

1943 में बंगाल अकाल के दौरान भारत में इतना अनाज भी उपलब्ध नहीं था कि वो अकाल पीड़ितों की मदद कर सके। इस समय WHO ने भारत को सहायता प्रदान की फिर भी भारत को कई हजार टन गेहूँ आयात करना पड़ा जो कि भारत की आर्थिक सामर्थ्य के अनुकुल नहीं था। तब कृषि वैज्ञानिकों तथा सरकार का ध्यान कृषि को उन्नत करने की ओर गया। कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामिनाथन (M.S. Swaminathan) ने प्रयासों द्वारा डॉ. नार्मन बारलॉग की भारत में यात्रा रखवायी व उनसे नवीन गेहूँ की किस्म देने का अनुरोध किया।

सन् 1968 में डॉ. बारलॉग भारत आये तथा भारत को नवीन गेहूँ प्रदान किया। इस नई किस्म को स्वामिनाथन के नेतृत्व में उगाया गया परिणामस्वरूप एक बड़ा उत्पादन परिणाम सामने आया। मैक्सिको में बौनी गेहूँ की उपज लेने में 17 वर्ष का समय लगा जबकि भारत को यह सफलता मात्र 5 वर्षों में ही प्राप्त हो गयी जिससे भारत गेहूँ का आयातक न होकर एक निर्यातक के रूप में सशक्त हुआ। इस सराहनीय योगदान के लिए डॉ. स्वामिनाथन को भारतीय हरित कांति के जनक (Father of Indian Green Revolution) की उपाधि से सम्मानित किया गया।

एक अन्य वैज्ञानिक डॉ. गुरुदेव एस. खुश (Dr. Gurdev S. Khush) ने भी हरित क्रांति में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। ये विश्व के श्रेष्ठ चावल प्रजननक है तथा इन्होंने चावल की पुरानी किस्म का क्रास करवाकर नई संकर किस्म (IR8) विकसित की। यह किस्म PETA (Indian Bangal varicty) तथा Dee-geo-woo-gen (DgWg) के क्रास का परिणाम थी। डॉ. खुश को उनके कार्यों के लिए बारलॉग ‘ पुरस्कार (Borlaug Award) से सम्मानित किया गया।

हरित क्रांति के कार्यक्रम (Programme of Green Revolution)

कृषि विकास में हरित क्रांति के प्रमुख कार्यक्रम अग्रलिखित है

(1) उन्नत किस्म के बीजों का उपयोग (Use of Better Seeds)

हरित क्रांति में उन्नत किस्म के बीजों की ओर ध्यान दिया गया है। गेहूँ की सोनारा 64, हीरा मोती, कल्याण सोना; इत्यादि, चावल की साबरमती, जमना, कृष्णा, रत्ना, जया, विजय इत्यादि; मक्का की गंगा; ज्वार की सी. एस. एच. तथा बाजरा में एच. बी. प्रमुख है। इन किस्मों के प्रयोग में निरंतर वृद्धि हुई है। 1968-69 में 12 लाख हेक्टर भूमि पर उन्नत बीजों का उपयोग हुआ था जो 1993-94 में बढ़कर 735 लाख हो गया। उन्नत किस्म के बीजों के उत्पादन के लिए राष्ट्रीय बीज निगम तथा राज्यों में राज्य बीज प्रमाणन संस्थाओं की स्थापना की गई है।

(2) उर्वरकों का उपयोग (Use of Fertilizers)

भारत में रासायनिक उर्वरकों का उत्पादन व प्रयोग दोनों ही तीव्र गति से बढ़ा है। 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग , kg/ha था जो बढ़कर 72 kg/ha हो गया। इसी प्रकार 1960-61 में रासायनिक खादों की कुल खपत 3 लाख टन थी जो 1994-95 में बढ़कर 1410 लाख टन हो गयी है। रॉक फेलर फाउण्डेशन रिपोर्ट के अनुसार हाल ही के वर्षों में उर्वरकों के उपयोग में भारत ने लगाई छलांग विश्व के अन्य देशों की तुलना में अधिक रही है।

(3) संयुक्त कृषि (Multiple Cropping)

इस कार्यक्रम का उद्देश्य एक ही भूमि पर दो या दो से अधिक फसलें उत्पादित करके उत्पादन बढ़ाना है। यह कार्यक्रम 1967-68 में आरंभ किया गया है था। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत कम अवधि में तैयार होने वाली फसलों चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का, तिलहन तथा आलू को उगाया गया है।

(4) लघु सिंचाई परियोजनाएँ (Small Irrigation Projects)

1965-66 तथा 1966-67 में सूखा पड़ने पर लघु सिंचाई योजना को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया गया। भारत सरकार ने अकाल की स्थिति का सामना करने के लिए आपातकालीन कृषि उत्पादन कार्यक्रमों के अन्तर्गत लघु सिंचाई की विशिष्ट योजना स्वीकृत की है। लघु सिंचाई कार्यक्रमों के अन्तर्गत नलकूपों विद्युत व डीजल पम्पिंग सैटों तथा कुओं आदि का विकास सम्मिलित है। लघु सिंचाई के अन्तर्गत 1947-48 में 80 लाख हैक्टर क्षेत्र सम्मिलित था जो 1994 में बढ़कर 491 लाख हेक्टर हो गया।

(5) पौध संरक्षण (Plant Protection)

पौध संरक्षण की नई व्यूह रचना हरित क्रान्ति का एक मुख्य अंग है। इसके अन्तर्गत कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग किया जाता है।

(6) गहन उत्पादकता (Intensive Cultivation)

खाद्यान्नों के अभाव को अल्पकाल में पूरा करने के लिए तीसरी योजना में यह कार्यक्रम चलाया गया। शुरू में यह योजना 7 जिलों में प्रारंभ की गई थी। वर्तमान समय में यह योजना 168 जिलों में चल रही है। इस कार्यक्रम की विधियों तथा उपकरणों के प्रयोग में पर्याप्त सुधार हुआ है।

(7) आधुनिक कृषि यंत्रों का उपयोग (Use of Modern Implements )

कृषि उत्पादन बढ़ाने तथा किस्मों को सुधारने में आधुनिक कृषि पत्रों जैसे ट्रेक्टर, बुलडोजर, थ्रेसर, हारवेस्टर आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

(8) अनुसंधान एवं कृषि (Research and Agriculture)

देश में कृषि शिक्षा बड़ी तीव्र गति से बढ़ी। 1950 में भारत में प्रथम कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर (उप्र) में स्थापित किया गया तथा इस समय देश में 26 कृषि विश्वविद्यालय है। “भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्” को कृषि अनुसंधान का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। इस समय परिषद् के नियंत्रण में 45 अनुसंधान केन्द्र व प्रयोगशालाएँ कार्य कर रही है।

(9) कृषि उद्योग निगम (Agriculture Industry Corporation)

मेघालय तथा नागालैण्ड को छोड़कर भारत के सभी राज्यों में कृषि उद्योग निगम स्थापित किये जा चुके हैं। इनका कार्य, किराया क्रय पद्धति पर ट्रेक्टर, पम्पसैट शक्ति दिलर आदि वितरित करना है।

(10) कृषि वित्तीय सुविधाएँ (Agriculture Financing Facilities)

कृषि को सस्ती एवं पर्याप्त वित्तीय सुविधाएँ देने के लिए सरकार ने अनेक कदम उठाये हैं। सरकार ने 6 बैकों का राष्ट्रीयकरण किया है। भूमि विकास बैंक, कृषकों को दीर्घकालीन ऋण देते हैं जबकि स्टेट बैंक, व्यापारिक बैंक, सहकारी साख समितियाँ और सरकारी एजेन्सियाँ अल्पकाल के लिए किसानों को ऋण प्रदान करती है।

(11) निम्नस्तरीय कृषकों के लिए विशेष योजनाएं (Special Projects for Weaker Sections)

छोटे कृषकों, सीमान्त कृषकों और कृषि श्रमिकों की सहायतार्थ लघु कृषक विकास एजेन्सी (SFDA) तथा सीमान्त कृषक और कृषि विकास एजेन्सी (MFALOA) तथा एकीकृत सूखा कृषि विकास आदि योजनाएँ बनाई गई हैं।

(12) कृषक सेवा समितियाँ (Agriculture Service Societies)

कृषकों को सभी सुविधाएँ देने के लिए प्रयोगात्मक आधार पर कृषक सेवा समितियों का गठन किया गया है।

(13) कृषि सेवा केन्द्र (Agriculture Services Centres)

यह योजना 1971 में दो उद्देश्यों से आरंभ की गई थी।

• प्रशिक्षित कृषकों को रोजगार देना।

● कृषकों के द्वार पर ही कृषि आदानों की उचित मूल्य पर पूर्ति करना ।

अब तक देश में 631 कृषि सेवा केन्द्र स्थानित किये जा चुके है तथा राजस्थान ही एक ऐसा राज्य है जिसके प्रत्येक जिले में एक कृषि सेवा केन्द्र स्थापित है।

(14) शुष्क भूमि विकास कार्यक्रम (Dry Area Development Project)

भारत के शुद्ध कृषि क्षेत्र 42.0 करोड़ हेक्टर में 10.30 करोड़ हेक्टेयर भूमि वर्षा पर निर्भर करती है। अतः देश के शुष्क क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने तथा कृषि का संभावित विकास करने के लिए शुष्क भूमि कृषि विकास योजना प्रारंभ की गई है। इस योजना द्वारा शुष्क भूमि में उत्पादन बढ़ाने में पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है।

(15) भूमि सुधार कार्यक्रम (Land Reforms Projects)

भूमि सुधार कार्यक्रमों का तीव्रता से क्रियान्वयन किया जा रहा है। सभी राज्यों की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया गया है। 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम के अन्तर्गत भूमि सुधार कार्यक्रमों को शीघ्रता से लागू करने की पर्याप्त व्यवस्था की गई है।

(16) भूमि सुरक्षा (Land Protection)

इस योजना के अन्तर्गत राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश आदि, राज्यों में भूमि को क्षरण से बचाने की व्यवस्था की गयी है। दूसरी ओर घाटियों और दरों की भूमि को साफ तथा समतल करके खेती योग्य बनाया जा रहा है।

हरित क्रांति के लाभ (Benefits of Green Revolution)

(1) कृषि उत्पादों में वृद्धि (Increase in Agricultural Production)

हरित क्रांति के परिणामस्वरुप कृषि उत्पादन तीव्रता से बढा है। सभी फसलों में से गेहूं के उत्पादन में सर्वाधिक वृद्धि हुई है। 1965-66 से 1993-94 के बीच गेहूँ उत्पादन में 45 गुणा वृद्धि हुई है। प्रारंभ में चावल के उत्पादन की वृद्धि दर धीमी रही है। परन्तु 1970-71 के बाद चावल के उत्पादन में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है।

(2) कृषि उत्पादकता में वृद्धि (Increase in Agriculture Productivity)

हरित क्रांति के फलस्वरूप कृषि उत्पादकता तीव्र गति से बढ़ी है। कृषि आदानों के अधिकाधिक प्रयोग के फलस्वरूप प्रति श्रमिक तथा प्रति हैक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि हुई है।

( 3 ) ग्रामीण विकास (Rural Development)

हरित क्रांति के फलस्वरूप ग्रामीण समुदाय की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है। सामंतवादी शक्तियों, बंधुआ मजदूरी प्रथाओं का ह्रास हुआ है।

(4) औद्योगिक क्षेत्र पर निर्भरता (Dependence on Industrial Sector)

हरित क्रांति में उद्योग निर्मित कृषि आद्वानों का बड़ी मात्रा में प्रयोग किया जा सकता है। उर्वरक, कीटाणुनाशक दवाइयों, मशीने, यंत्र, परिवहन आदि के कारण कृषि का स्वावलम्बी स्वरूप नष्ट हो गया है तथा इसकी उद्योगों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।

(5) औद्योगिक कच्चे उत्पादों में वृद्धि (Increase in Industrial Raw Materials)

तिलहन के उत्पादन में चार गुना, गन्ने के उत्पादन में दुगुनी, कपास उत्पादन में 2.6 गुनी तथा जूट के उत्पादन में 25 गुनी वृद्धि हुई है।

हरित क्रांति की हानियाँ (Adverse Consequences of Green Revolution)

हरित क्रांति के सामाजिक प्रभाव अनुकूल नहीं है। ये दुष्प्रभाव दो प्रकार के है व्यक्तिगत असमानताएँ एवं क्षेत्रीय असमानताएँ।

(A) व्यक्तिगत असमानताएं

भारत का वर्तमान सामाजिक ढ़ाँचा धनाढ्य के पक्ष में रहा है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में हरित क्रांति का लाभ उसी वर्ग को मिला है जिसके पास भूमि व अन्य परिसम्पत्तियाँ है। छोटे एवं सीमान्त किसान हरित क्रांति के लाभों से वंचित रह गये है। इस प्रकार धनाढ्य व निर्धनों के बीच खाई ओर बढ़ी है। हरित क्रांति के फलस्वरूप व्यक्तिगत असमानताओं में वृद्धि के निम्न कारण है

  • हरित क्रांति तकनीक में किसानों को अनेक लागतों का प्रयोग एक साथ करना पड़ता है, तभी इसका लाभ उठाया जा सकता है। बड़े किसानों के पास पर्याप्त वित्तीय साधन होते है अतः वे इन लागतों का एक साथ प्रयोग कर सकते हैं। इसके विपरीत छोटे किसानों की आर्थिक स्थिति दुर्बल होने के कारण इन लागतों को एक साथ खरीदकर प्रयोग नहीं कर पाते। इस प्रकार बड़े किसान तो इसका लाभ प्राप्त कर लेते है परन्तु छोटे किसान इससे वंचि जाते है ।
  • नई तकनीक के लिए विशेषज्ञों की सेवाओं की आवश्यकता होती है । बड़े किसानों को दे । सेवाएं बिना किसी परेशानी के उपलब्ध हो जाती है , जबकि छोटे किसानों को ये सेवाएं उपलब्ध नहीं हो पाती । नई तकनीक के प्रयोग में जोखिम अधिक होता है । किसी भी स्तर पर थोड़ी सी भी लापरवाही फसलों को काफी हानि पहुँचा सकती है । छोटे किसान इन जोखिमों को उठाने में कतराने है , अतः वे परम्परागत कृषि तकनीक का ही प्रयोग करते हैं । इस प्रकार वर्तमान सामाजिक ढ़ांचे में हरित क्रांति का लाभ बड़े किसानों को ही मिल पाया है जिससे व्यक्तिगत असमानताओं में वृद्धि हुई है ।

( B ) क्षेत्रीय असमानताएँ

  • हरित क्रांति के फलस्वरूप क्षेत्रीय विषमताओं को बढ़ावा मिला है । नई तकनीक का उपयोग उन्हीं क्षेत्रों में हुआ है जहाँ पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध है । ये क्षेत्र है— पंजाब , हरियाणा और उत्तरप्रदेश । देश का लगभग 3/4 भाग इसके लाभों से वंचित रह गया है ।

( 2 ) हरित क्रांति एवं रोजगार ( Green Revolution and Employment )

सारी नई तकनीकी श्रम प्रधान है । अनेक कार्यक्रम लागू होने से यह अपेक्षा की जाती थी कि कृषि क्षेत्र में रोजगार के अधिक अवसर प्रदान होंगे । इसी प्रकार कृषि व कृषि पूरक उद्योगों के विस्तार से रोजगार सेवाओं का भी विस्तार होगा परन्तु व्यवहार में नई तकनीक रोजगार पूरक सिद्ध नहीं हुई ।

( 3 ) महिलाओं को किनारा ( Marginalisation of Women )

अनेक विकासशील देशों की कृषि समुदाय में महिलाओं ने फसल उत्पादन में अपना योगदान दिया । आँकड़े बताते है कि महिलाएँ , पुरुषों की तुलना में ज्यादा घंटे खेतों में काम करती है और उनके मुकाबले अधिक ऊर्जा भी लगाती है । मुख्य रूप से पौधे लगाना , कटाई करना , चारा ले जाना , भंडारण आदि सभी प्रक्रियाओं में महिलाओं का योगदान होता है । हरित क्रांति की तकनीक के कारण मजदूरों को अपना स्थान खोना पड़ा और महिलाओं को सबसे पहले किनारा करना पड़ा ।

( 4 ) अन्य फसलों पर शिथिल प्रभाव ( No Benefits for Other Crops )

हरित क्रांति से गेहूँ चावल व गन्ने के उत्पादन को बढ़ावा मिला व अन्य फसलों पर इसका प्रभाव शिथिल रहा ।

हरित क्रांति में सफलता के सुझाव ( Suggestions for the Success of Green revolution )

देश में हरित क्रांति को व्यापक रूप से सफल बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं ।

( 1 ) भूमि सुधार कार्यक्रमों को प्रभावशाली व विस्तृत ढंग से क्रियान्वित किया जाये ।

( 2 ) छोटे किसानों को बड़े किसानों की तुलना में कम ब्याज पर साख सुविधाएँ उपलब्ध करवायी जायें ।

( 3 )श्रम प्रधान तकनीक को प्राथमिकता दी जाये ।

( 4 ) कृषि में यंत्रों के प्रयोग से उत्पन्न बेरोजगारी के समाधान के लिये ग्रामों में लघु एवं कुटीर उद्योगों का तेजी से विकास किया जाये ।

( 5 ) कृषि विपणन प्रणाली में सुधार किया जाये ।

(6) कृषकों के लिए फसल बीमा योजना व्यापक रूप से लागू किया जाये।

(7) चावल, जूट, कपास तथा तिलहन आदि व्यापारिक फसलों के लिए उन्नत बीजों की खोज की जाये।

(8) नवीन तकनीक को छोटे किसानों के लिए लाभप्रद बनाया जाये।

(9) सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जाये।

(10) पौध संरक्षण कार्यक्रमों का विस्तार किया जाये।

(11) शिक्षा अनुसंधान एवं विस्तार सेवाओं का विकास किया जाये।

(12) भूमिहीन मजदूरों एवं काश्तकारों का संगठन बनाया जाये।

(13) मिट्टी के परीक्षण के आधार पर फसल की बुवाई का चयन किया जाये।

(14) ऊष्मा कृषि को ओर अधिक प्राथमिकता दी जाये।

नवीन हरित क्रांति (New Green Revolution)

बढ़ती जनसंख्या और घटते खाद्यान्नों को देखते हुए आज फिर एक हरित क्रांति की आवश्यकता महसूस होती है। आज औद्योगिकीकरण के कारण कृषि भूमि सिमटती जा रही है। उद्योगों से निकलने वाला रसायन कृषि भूमि को बंजर बनाता जा रहा है। यही कारण है कि एक हरित क्रांति होने के बावजूद आज उत्पादकता का स्तर स्थिर हो गया है।

पूर्व में हुई हरित क्रांति का उद्देश्य भूखों को भर पेट भोजन उपलब्ध करवाना था परन्तु आज जरूरत है कि भोजन का उद्देश्य पेट भरना मात्र न होकर स्वास्थ्यवर्धक भी हो ताकि देश की जनता कुपोषण से होने वाली बीमारियों से बच सके। इस प्रकार पूरा देश एक नवीन हरित क्रांति की माँग कर रहा है। इससे निम्न आशाएँ की जाती है

  • आण्विक विज्ञान तथा जैवप्रोद्यौगिकी की सहायता से बीजों का नस्ल सुधार किया जाये। कृषि में रासायनिक उर्वरकों की जगह जैव उर्वरक, वर्मी कम्पोस्ट तथा कम्पोस्ट उर्वरकों का उपयोग किया जाये ताकि फसलों को स्वास्थ्यप्रद बनाया जा सके।
  • कृषि को वर्षा आधारित न रखकर सिंचाई के दूसरे तरीके अपनायें जाये। खेतों में कुओं के पास छोटे तालाब बनाये जाये ताकि भूमि जलस्तर (ground water level) बढ़े। बूँद-बूँद सिंचाई को अपनाया जाये ताकि पानी का ह्रास कम हो, जिससे किसान पूरे साल अपने खेत में प्रत्येक फसल की सिंचाई कर सके।
  • इस प्रकार के कीटनाशक विकसित किये जाये जिससे कीट नियंत्रण तो हो, लेकिन मानव स्वास्थ्य प्रभावित न हों।
  • ग्राम सेवकों द्वारा किसानों को शिक्षित किया जाये ताकि वे सही समय पर फसल उगाकर अधिक उत्पादन का लाभ ले सकें।
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