लैमार्कवाद

लैमार्कवाद (Lamarckism)

लैमार्क (Lamarck, 1809) ने सर्वप्रथम जैव विकास की प्रक्रिया सम्बन्धी सिद्धान्त प्रतिपादित किया। लैमार्क द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त लैमार्कवाद (Lamarckism) कहलाता है। लैमार्क के अनुसार जाति स्थायी न होकर परिवर्तनशील होती है। सरल जातियाँ धीरे-धीरे जटिल होने का प्रयास करती है। क्योंकि जटिल होने की प्रवृत्ति प्रत्येक जीव में होती है। यह प्रवृत्ति जैव विकास का आधार है। इनका सिद्धान्त ‘उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त’ (Thoery of inheritance of acquired) के नाम से जाना जाता है।

यह सिद्धान्त निम्न चार मूल अवधारणाओं पर आधारित है

  1. जैव विकास के दौरान सजीव जन्तु और उनके घटक अंगों के आकार में वृद्धि होने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
  2. जन्तु का कोई भी अंग नियमित उपयोग करने पर अधिक विकसित और उपयोग कम होने पर अपहासित होने लगता है। इसे ‘अंगों के कम या अधिक उपयोग का सिद्धान्त’ (Thoery of use and disuse) भी कहते हैं।
  3. नवीन आवश्यकता से एक नये अंग का विकास या निर्माण होता है अर्थात् वातावरण में होने वाले परिवर्तनों के कारण जन्तुओं की संरचना में परिवर्तन होता है। बदली हुई आवश्यकताओं के अनुरूप शरीर में नये अंगों का विकास होता रहता है।
  4. जन्तु द्वारा उपार्जित लक्षण उसकी संतति में वंशागत होते जाते हैं और अन्त में समय के साथ स्थायी हो जाते हैं। इस प्रकार नई जातियों का विकास होता है।

लैमार्क के नियमों की पुष्टि एवं विश्लेषण

1. लैमार्क का प्रथम नियम Lamarck’s first law

‘निरन्तर वृद्धि की प्रवृत्ति’ होना है। कुछ विशिष्ट समूहों में यद्यपि विकास की प्रक्रिया वृद्धि के साथ जुड़ी पाई गई है। परन्तु अनेकों स्थानों पर यह भी देखा गया है कि विकास न्यूनीकरण के द्वारा हुआ है। अतः यह नियम सर्वमान्य नहीं हो सकता है।

2. लैमार्क का दूसरा नियम Lamarck’s Second law

‘उपयोग व अनुपयोग के साथ अंगों के विकास का जुड़ा होना’ है। इस नियम के समर्थन में कई उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। जैसे अधिक शारीरिक परिश्रम करने वालों की पेशियाँ मजबूत हो जाती हैं। अफ्रीकी जिराफ के पूर्वजों की अगली टाँगें व गर्दन छोटी हुआ करती थीं। यह पूर्वज घने जंगलों में रहते थे, छोटे पौधों व उनकी पत्तियों को खाकर जीवित रहते थे। जलवायु में परिवर्तन के कारण छोटे पौधे नष्ट होने लगे व पेड़ धीरे-धीरे ऊँचे होने लगे।

अतः जिराफ को जीवनयापन के लिये (ऊँचे) पेड़ों की पत्तियों पर निर्भर होना पड़ा और अपनी टाँगों को ऊपर उठाकर व गर्दन को लम्बी करके पत्तियों को खाना पड़ा। इस अधिक उपयोग के कारण जिराफ की अगली टाँगें व गर्दन पीढ़ी दर पीढ़ी लम्बी होती गई। उपयोग में न आने वाले अंग धीरे धीरे छोटे होते जाते हैं या लुप्त हो जाते हैं।

इसकी पुष्टि के लिये सांपों की टाँगों का उदाहरण दिया जा सकता है। बिल में रहने के कारण टाँगों का उपयोग कम होने से धीरे धीरे इनकी टाँगें लुप्त हो गईं। इसी प्रकार उपयोग में न आने कारण मानव के कर्णपल्लव को हिलाने वाली पेशियाँ, जो हाथी, कुत्ते, गाय आदि में आज भी विकसित रूप में पाई जाती हैं, अवशेषी हो गई।

परन्तु, जहाँ लैमार्कवाद के पक्ष में कई उदाहरण दिये जा सकते हैं वहीं इससे कहीं अधिक उदाहरण उसके विपक्ष में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। यदि लैमार्क का यह सिद्धान्त सही होता तो आज मानव के दाढ़ी व मूछें नहीं होतीं। हम रोज दाढ़ी बनाकर अनावश्यक वालों को चेहरे से हटा देते हैं परन्तु सदियाँ बीत जाने पर भी दाढ़ी उसी गति से बढ़ जाती है। आँखों का अनवरत रूप से प्रयोग किये जाने पर भी मानव की आँखें अधिक विकसित या बड़ी नहीं हुई, आदि।

 3. लैमार्क का तीसरा नियम Lamarck’s Third law

‘इच्छाओं व आवश्यकताओं के अनुसार अंगों का विकास’ होना है। इस नियम के पक्ष में अनुकूलन के समस्त उदाहरण दिये जा सकते हैं। पक्षियों में पंखों, सरीसृपों की अंगुलियों में नखरों (claws), शल्क, मेंढ़क के पश्चपाद की अंगुलियों के बीच स्थिति झिल्ली आदि का विकास, बदली हुई परिस्थितियों व आवश्यकताओं के अनुसार ही हुआ।

परन्तु अनेक उदाहरण इसके विपरीत भी दिये जा सकते हैं। यदि इच्छा करने और आवश्यकता मात्र से नये अंग विकसित हो सकते हों तो क्या मानव में उड़ने की इच्छा करने से पंख विकसित हुए? या हो सकते हैं? अतः लैमार्क का यह सिद्धान्त भी मान्य न हो सका।

4. लैमार्क का चौथा नियम Lamarck’s Fourth law

उपार्जित लक्षणों की वंशागति’ से सम्बन्धित है। यदि वास्तव में देखा जाये तो लैमार्क का यही नियम लैमार्कवाद की असफलता का मुख्य कारण बना। नव-लैमार्कवाद (Neo-Lamarckism) के समर्थकों ने इस विषय में शोध करके कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जो उपार्जित लक्षणों की वंशागति को दर्शाते हैं।

जैसे मैकडूगल (Me Dougall, 1938) ने कुछ सफेद चूहों व उनकी कई पीढ़ियों को लगातार समान तरीके से सिखाने का प्रयास किया। उसने अपने यह प्रयोग उन चूहों की 45 पीढ़ियों तक जारी रखे। उसने देखा कि सीखे हुए चूहों की संतानों को वही बात सिखाने में कम समय लगता है साथ ही वे गलतियाँ भी कम करते हैं। लैमार्क का उपर्युक्त सिद्धान्त सामान्य रूप से बड़ा सरल एवं आकर्षक लगता है।

परन्तु उनके सिद्धान्त की आलोचना का बिन्दु उपार्जित लक्षणों के वंशागति की धारणा थी। लैमार्क के मतानुसार एक बुद्धिमान का बेटा बुद्धिमान, पहलवान का बेटा पहलवान, खिलाड़ी का बेटा खिलाड़ी होना चाहिए, परन्तु वास्तविकता उससे अलग सिद्ध हुई। लैमार्क का यह मत तो ठीक था कि वातावरण के अनुरूप जन्तु के जीवनकाल में, कुछ व्यक्तिगत परिवर्तन हो जाते हैं परन्तु ये व्यक्तिगत लक्षण उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। ये शारीरिक लक्षण वंशागत नहीं होते हैं।

जर्मन विज्ञानी बीजमैन (Weismann) ने चूहों पर एक प्रयोग कर लैमार्क के सिद्धान्त का खण्डन किया। उन्होंने जन्म लेते ही चूहों ही पूँछ काट दी। इस क्रम को उन्होंने चूहों की बीस पीढ़ियों तक जारी रखा। लैमार्क के मतानुसार इक्कीसवीं पीढ़ी के चूहों की पूँछ लुप्त हो जानी चाहिये, परन्तु उन चूहों की पूँछ की लम्बाई तक कम नहीं हुई।

वीजमैन के ‘जनन द्रव्य सिद्धान्त‘ (germplasm thoery) के अनुसार शरीर में दो प्रकार की कोशिकाएँ होती है- कायिक कोशिकाएँ एवं जनन कोशिकाएँ । कायिक कोशिकाओं में कायिक द्रव्य (somatoplasm) तथा जनन कोशिकाओं में जनन द्रव्य (germ plasm) होता है। लैंगिक जनन में युग्मक जनन कोशिकाएँ ही भाग लेती है। संतति में जनन द्रव्य ही स्थानान्तरित होता है न कि कायिक द्रव्य जनन द्रव्य ही पीढ़ी दर पीढ़ी वंशागत होते हैं।

अतः केवल वही लक्षण (परिवर्तन) संतति में वंशागत होंगे जो जनन द्रव्य में होते हैं और कायिक द्रव्य के लक्षणों (परिवर्तनों) का प्रभाव उसी प्राणी तक सीमित होता है जिसके कोशिका द्रव्य (कायिक द्रव्य) में ये परिवर्तन होते हैं। आज भी हमारे देश में अनेक परिवारों में लड़कियों के कान छिदाने की परम्परा है परन्तु सैंकड़ों वर्षों की इस परम्परा के बाद भी कनछिदी लड़की का जन्म नहीं हुआ।

हम जानते हैं कि पैतृक गुणों के वाहन का कार्य गुणसूत्र के जीन्स करते हैं। लैमार्क का उपार्जित लक्षणों के वंशागति का सिद्धान्त विश्वसनीय नहीं है।

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