रेशम कीट पालन के बारे में पूरी जानकारी

रेशम कीट रेशम कैसे बनाता हैं , सेरीकल्चर किसे कहते हैं , सेरीकल्चर की परिभाषा , रेशम कीट का महत्व, कोकून किसे कहते है, कोकून की परिभाषा, रेशम कीट पालन किसे कहते हैं [what is sericulture in hindi, kokun kise kahate hain, rearing of silkworm is called]

sericulture in hindi – व्यापारिक दृष्टि से रेशम प्राप्त करने के लिए रेशम कीट का पालन रेशम कीट पालन या सेरीकल्चर कहलाता है रेशम कीट शलभ ( moth ) जाति का कीट होता है जो लार्वा अवस्था के दौरान अपनी लार ग्रंथियों से तरल पदार्थ स्त्रावित करता है। यह तरल पदार्थ वायु के संपर्क में आने पर सूखकर लंबा लचीला चमकीला रेशम के धागे में परिवर्तित होता जाता है ‌‌।

रेशम कीट का वर्गीकरण ( Classification of Silkworm ) 

संघ ( Phylum ) -आर्थोपोडा ( Arthropoda )

वर्ग ( Class ) -इन्सैक्टा ( Insecta )

गण ( Order ) -लेपिडोप्टेरा ( Lepidoptera )

कुल ( Family ) -बॉम्बिसिडी एवं सेटरनिडी ( Bombycidae and Sturnidae )

वंश ( Genus ) बॉम्बिक्स ( Bombyx )

जाति ( Species ) – मोराई ( mori ) 

सामान्य नाम ( Common Name ) – रेशम कीट या रेशम मॉथ ( Silk worm or Silk moth )

 रेशम कीट के अतिरिक्त और भी शलभ ( moths ) हैं जिसके लार्वा रेशमी कोकून ( silk cocoon ) बनाते हैं।

रेशम कीट का जीवन चक्र , बॉम्बिक्स मोराई ( Bombyax mori ) 

बॉम्बिक्स मोराई ( Bombyax mori ) 

अन्य सभी व्यापारिक महत्त्व की रेशम शलमों में से यह मॉथ ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । यह पूर्णतः पालतू मॉथ है । यदि इसका पालन – पोषण व देख – रेख नहीं की जाये तो यह प्राकृतिक रूप से पनपने से अक्षम होती है । वयस्क माँथ का शरीर 4-5Cm लम्बा तथा गन्दे सफेद रंग का होता है । शरीर क्यूटिक्यूलर रोमों ( cuticular hair ) से ढंका होता है ।

इसके सिर पर एक जोड़ी संयुक्त नेत्र व एक जोडी पिच्छकी श्रृगिकाएं पायी जाती हैं । मुखांग में एक शुएड ( proboscis ) प्रमुख होती है । ये चूसने हेतु अनुकूलित होते हैं । वक्ष पर दो जोडी बड़े पख हमेशा फैले रहते हैं तथा पंखों पर शल्कों का आवरण होता है । वक्ष पर तीन जोड़ी टाँगें उपस्थित होती हैं । 

 इनमें आन्तरिक निषेचन पाया जाता है । इसके तुरन्त उपरान्त मादा 1-24 घण्ट्रों की अवधि के भीतर अण्डे देना समाप्त कर देती है । अण्डे सदैव ही शहतूत के पत्तों की ऊपरी सतह पर दिए जाते हैं व जिलेटिन युक्त पदार्थ से ढंके रहते हैं । अण्डे आकार में गोल व सफेद रंग के होते हैं । धीरे – धीरे अण्डों का रंग गहरा हो जाता है ।

कुछ अण्डे उपरति ( diapuse ) का लक्षण दर्शाते हैं । अण्डों का स्फोटन ( hatching ) 10 दिनों के उपरान्त होता है तथा इनसे कैटरपिलर लार्वे ( caterpillar larvae ) उत्पन्न होते हैं । एक मादा 400-500 तक अण्डे देती है । रेशम कीट शहतूत के पेड़ों पर पाला जाता है क्योंकि इसका लार्वा अर्थात् कैटरपिलर इस पेड़ के पत्तों का भक्षण करता है ।

लार्वा के मुखाग चिबुकी ( mandibulate ) प्रकार के होते है । कैटरपिलर बेलनाकार ( cylindrical ) एव चिकने होते है । ये लगभग 40-50mm लम्बे होते है । इनकी देह में कुल बारह खण्ड होते हैं । देह पर पाँच जोड़ी छोटी – छोटी टोगे होती है । कैटरपिलर के गुदीय खण्ड पर एक पृष्ठ अंग ( dorsal hom ) पाया जाता है । केटरपिलर शहतूत की पत्तियों का भरण करते हुए 4 बार निर्मोचन ( moulting ) करता है तथा एक महीने में 7-8 से.मी. का हो जाता है । परिपक्व केटरपिलर भोजन करना बन्द कर देता है ।

इसके शीर्ष भाग में एक जोडी लार गन्धियाँ बनती है । इनसे रेशम तरल रूप में स्त्रावित होता है । यह इसक मुख में खुलने वाली निकास मुली स्पिनरेट ( spinneret ) से बाहर निकलता है व वायु के सम्पर्क में आने पर सूख कर धागे के समान कठोर हो जाता है । यह पाँच तन्तुओं के रूप में होता है जो परस्पर एक चिपचिपे पदार्थ सिरेसिन ( sericin ) द्वारा परस्पर चिपके रहते हैं । 

केटरपिलर अपने मुख से यह रेशम का धागा निकालता रहता है व सिर को घुमा कर देह पर लिपेटता जाता है । इस प्रकार स्वयं अपने आप को कोकून ( cocoon ) या प्यूपा कोष ( pupal sac ) में बन्द कर लेता है।

 एक केटरपिलर 3-4 दिनों में 1000-1500 मीटर धागा लिपेटता है । 

 केटरपिलर का जीवनकाल करीब 15 दिन का होता है , इसके बाद यह कोकून ( cocoon ) कहलाता है तथा स्वय प्यूपा ( pupa ) में बदल जाता है । कोकून श्वेत या हल्के पीले रंग का अण्डाकार आकृति का होता है ।

 प्यूपा ( pupa ) या क्राइसैलिस ( chrysalis ) द्वारा प्रौढ अर्थात इमैगो ( imago ) बनने में गर्मियों में एक माह तथा सर्दियों में 3-5 माह का समय लिया जाता है । रेशम के धागे को निकालने के लिए प्यूपा – सहित कोकून को गर्म पानी में डुबा दिया जाता है जिससे काकून के भीतर प्यूपा मर जाता हैं एवं धागा रील में लपेट लिया जाता है।

 यदि कोकून को मार कर धागा न प्राप्त किया जाये तो वयस्क बनने पर यह एक क्षारीय तरल नावित करता है जो कोकून के एक सिरे को गला देता है व वयस्क शलभ कोकून को तोड़कर बाहर निकलते ही मैथुन करते हैं व मादा अण्डे देती है । तीन या चार दिनों के भीतर नर व मादा की मृत्यु हो जाती

रेशम कीट पालन है इसका जीवन काल 3-4 दिनों का ही होता है । मादा शलभ की देह भारी होने के कारण यह उड़ने में अक्षम होती है । अपने जीवन काल के दौरान ये कीट भोजन ग्रहण नहीं करते ।

 सेरीकल्चर उद्योग ( Sericulture Industry )

 रेशमकीट उद्योग स्थापित करने हेतु अनेक बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है । इनके अनुरूप सामग्री जुटाना , स्थान चुनना , पूरी प्रक्रिया को समझना एवं संचालित करना एक जटिल कार्य है , आवश्यक बिन्दुओं का वर्णन निम्न प्रकार से है 

 1. रेशमकीट की अच्छी जाति का चुनाव करना । यह उस स्थान की जलवायु को ध्यान में रखकर किया जाता है जिस स्थान पर यह उद्योग लगाना है । 

 2. रेशमकीटों के लार्वा हेतु उच्च पोषक तत्वों वाले शहतूत के पौधों के बगीचे लगाना दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है जहाँ से निरन्तर लार्वा को शहतूत के पत्ते उपलब्ध हो सके ।

कोकून से रेशम प्राप्त करने की विधि ( Technique for Obtaining Silk From Cocoons )

1.स्टिफलिंग ( Stifling ) –

कोकून से रेशम प्राप्त करने के लिये कोकून को गर्म जल में डाल कर या अवन में अधिक ताप पर रख कर मार दिया ( killing ) जाता है । यह क्रिया स्टिफलिंग कहलाती है । स्टिफलिंग क्रिया भाप देकर या धूप में रखकर अथवा धूमण ( fumigation ) द्वारा भी की जाती है । ( यदि इनमें प्यूपा जीवित रहता है व वयस्क बनकर बाहर निकलता है तो कोकून को काट दिया जाता है जिससे रेशम का धागा छोटे – छोटे टुकड़ों में टूट जाता है ।

 2. रीलिंग व स्पिनिंग ( Reeling and Spinning ) –

  एकत्रित किये गये कोकूनों को जल में उबाला जाता है । गर्म जल में उबालने से धागों के बीच के बन्धन कमजोर हो जाते हैं , अतः कोकून सं धागा अलग करने में सुविधा होती है । कोकून से धागा खोलने की क्रिया रीलिंग कहलाती है । पूरा कोक्न एक सतत् धागे से बना होता है । यह धागा 1000 से 1500 मीटर लम्बा हो सकता है । यह धागा लार्वा के द्वारा स्वयं पर एक मिनट में 65 बार सिर घुमा कर स्त्रावित करते हुए लपेटा गया होता है ।

अनुभवी कारीगर द्वारा एक साथ चार – पाँच कोकून से धागा पकड़कर अलग करते हुए एक छिद्र अक्षिका ( eyelet ) से निकाल कर चकरी ( spool ) पर चढाकर लपेटा जाता है। लगभग 25000 कोकूनों से 454 ग्राम रेशम निकलता है । इस प्रकार प्राप्त रेशम कच्चा रेशम ( raw silk ) कहलाता है । इसे ही रील्ड सिल्क ( reeled silk ) भी कहते है। एक कोकून का भार 1.8-2.2 ग्राम होता है ।

कच्चे रेशम को पानी में उबाला जाता है , रासायनिक अम्ल के घोल से धोया जाता हैं । रेशम के धागों को बल लगाकर पक्के धागों में बदल लिया जाता है । अब यह फाइबर रेशम ( fiber silk ) कहलाता है । यह क्रिया स्पिनिंग ( spinning ) कहलाती है । क्षतिग्रस्त कटे – फटे कोकून तथा व्यर्थ बचे धागों को भी काटकर व धुन कर धागा बना लिया जाता है , इसे स्पन रेशम ( spun silk ) कहते हैं । कुछ कोकून अगली फसल हेतु बीजों की भाँति सुरक्षित रखे जाते हैं ।

 सिल्क ( Silk )

 रेशम , रेशम – कीट की लार ग्रन्थियों स्त्रावित किया जाने वाला लेई ( paste ) समान द्रव्य है जो स्पिनिरेट निकास नलिका से निकलता है व वायु सम्पर्क में आकर धागे के रूप में सूख कर प्राप्त होता है । इस स्त्रवण में प्रोटीन के दो क्रोड ( core ) होते हैं 

 1. दृढ़ प्रत्यास्थ तथा जल में अघुलनशील प्रोटीन जो 75 % भाग बनाता है । 

 2. 25 % भाग जिलेटिनी प्रोटीन से बना होता है जो गर्म जल में घुलनशील होता है ये दोनों प्रोटीन सेरिसिन ( sericin ) नामक चिपचिपे पदार्थ से परस्पर चिपके रहते हैं । सेरिसिन मध्य भाग की अन्य ग्रन्थियों से स्त्रावित होता है । रेशम में इनके अतिरिक्त कुछ मात्रा मोम ( wax ) व केरोटिनोइड वर्णकों की भी पायी जाती है । इसमें 20 % तक प्रत्यास्थता पायी जाती है । 

रेशमकीट के रोग ( Diseases of Silk – worm ) 

 रेशम उद्योग अनेक रोगों से प्रभावित होता आया है । ये रोग रेशम कीट की लार्वा अवस्था में लग जाते हैं । एक महत्वपूर्ण रोग पेविन ( pebrine ) कहलाता है तथा एक प्रोटोजोआ नोसिमा बॉम्बिक्स ( Nosema bombyx ) द्वारा उत्पन्न होता है । एक अन्य रोग मेगट रोग ( maggot disease ) कहलाता है जो एक मक्खी ट्राइकोलिगा सॉरबिलास (Tricliolyga sorbillas ) के कारण होता है।

रेशमकीट के रोग ( Diseases of Silk - worm ) 

यह मक्खी अपने अण्डे लार्वा की त्वचा में दे देती है । अण्डों से मेगट ( maggots ) निकल कर लार्वा की देह में विकसित हो जाते हैं तथा लार्वा की मृत्यु हो जाती है । यह रोग अधिकतर रेशम कीट लार्वा की चतुर्थ व पंचम अवस्था में लगता है जब यह कोकून बनाने की तैयारी करता है । कुछ अन्य विषाण्विक रोग जैसे पॉलीहेड्रोसिस ( polyhedrosis ) , जीवाणुओं तथा कवक द्वारा उत्पन्न हो जाते हैं जो इनकी मृत्यु का कारण बनते हैं । 

शहतूत ( Mulberry ) 

शहतूत ( Mulberry ) 

सम्पूर्ण सिल्क उद्योग शहतूत के पत्तों पर आधारित है जो इन कीटो का भोजन होता है । इसके लिये शहतूत के पौधों की कलम उचित मौसम में भूमि तैयार कर रोपी जाती है । इसकी उत्तम प्रजाति में मोरस एल्बा लीनियस ( Morus alba Lim . ) तथा मोरस इन्डिका लीनियस ( Moras indica Lim . ) प्रमुख हैं । 

भारत में रेशम कीट पालन लगभग 1000 वर्ष पूर्व से ही किया जाता रहा है , किन्तु यह कुटीर उद्योग के रूप में बना रहा है । नकली रेशम के सस्ता होने के कारण तथा आधुनिकीकरण के अभाव में यह उद्योग अल्प विकसित ही रहा है । इसके महँगे उत्पादन , कम उपज एवं निम्न कोटि के कच्चे रेशम के कारण इसमें अधिक कार्य क्षमता का विकास नहीं हो पाया । पिछले 15-20 वर्षों में भारत में उच्च तकनीक

के अपनाये जाने के कारण रेशम की कोटि में भी काफी सुधार हुआ है तथा उपज में उत्साहजनक बढ़ोत्तरी हुई है । नये अनुसंधानों के कारण शहतूत की पत्तियों का उत्पादन 15,000 kg प्रति हेक्टर से बढ़कर 30,000 kg प्रति हेक्टर हो गया है । 

 भारत में यह उद्योग लगभग 85 लाख लोगों को रोजगार देता है , जिसके द्वारा वार्षिक आय लगभग 350,000,000 रुपये होती है । भारत में बॉम्बिक्स मोराई ( Bombyx mori) जाति लगभग सभी स्थानों पर पायी जाती है । भारत के लगभग 210 जिलों में रेशम कीट पालन किया जाता है | भारत में लगभग 15200 मीट्रिक टन रेशम का उत्पादन प्रतिवर्ष किया जाता है । आधुनिक आँकड़ों के अनुसार भारत का स्थान रेशम उत्पादन में विश्व में तीसरा है ।

भारत में उत्पादित रेशम का एक बड़ा भाग देश में ही काम में लिया जाता है । उत्पादन का मात्र 35 से 40 प्रतिशत भाग अन्य देशों को निर्यात ( export ) किया जाता है । भारत में रेशम तकनीक में उच्च स्तरीय सुधार हेतु सेन्ट्रल सेरीकल्चर स्टेशन , बेहरमपुर तथा सेन्ट्रल सेरीकल्चर एण्ड ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट , मैसूर एवं राँची कार्यरत हैं । राजस्थान में इस उद्योग को बहुत अघि क प्रोत्साहन दिया जा रहा है तथा रेशम के कीट का सफल पालन अरण्डी ( castor ) की पत्तियों पर बीकानेर में किया जा रहा है । जोधपुर , बाँसवाड़ा एवं कोटा रेशमकीट – पालन के मुख्य केन्द्र हैं ।

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