प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त

डार्विन के सिद्धांत का वर्णन करें, प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त Darwin’s theory of natural selection in hindi

लैमार्क के उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धान्त के पश्चात् डार्विन (Darwin) ने जीवों के विकास के सम्बन्ध में प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त (thoery of natural selection) प्रस्तुत किया। डार्विन के मतानुसार केवल वे ही जीव, जीवित रहते हैं जो अपने आपको वातावरण के अनुकूल बना लेते हैं। वे जन्तु जो वातावरण के अनुकूल नहीं हो पाते, धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति जीवों का चयन कर, नई जातियों का विकास करती है। डार्विन को निम्न दो मत प्रतिपादित करने का श्रेय है

  1. डार्विन ने जैव विकास के सम्बन्ध में इतने अधिक प्रमाण प्रस्तुत किये कि वैज्ञानिकों ने इसे एक नियम के रूप में स्वीकार किया।
  2. डार्विन ने जैव विकास की क्रियाविधि के सम्बन्ध में ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो आधुनिक मान्य सिद्धान्त का मूल आधार है

डार्विन के प्राकृतिक वरण के सिद्धान्त के निम्न प्रमुख बिन्दु हैं

1. जीवों की सन्तानोत्पत्ति की दर का अत्यधिक उच्च होना (Enormous rate of fertility in organisms)-

सभी पादप एवं जन्तु सन्तानोत्पत्ति की प्रचुर क्षमता रखते हैं। एक समुद्री सीपी (marine mussel) 60 लाख अण्डे प्रतिवर्ष देती है। एक मादा ऐस्केरिस 2.7 करोड़ अण्डे देती है। एक तम्बाकू का पौधा 4 लाख बीज उत्पन्न करता है। यदि तम्बाकू के सभी बीजों को उगा दिया जाये तो कुछ ही वर्षों में पृथ्वी पर उनके लिए स्थान भी नहीं मिलेगा।

2. जाति की स्थिर संख्या (Constant number of individuals)

प्रचुर मात्रा में सन्तानोत्पत्ति होने के बाद भी प्रत्येक जाति की लगभग सन्तुलित आबादी बनी रहती है। ऐसा इसलिए होता है कि इनके बहुत से अण्डों को दूसरे जीव जन्तु खा जाते हैं, कुछ स्वयं सूखकर नष्ट हो जाते हैं या उनमें टूट-फूट हो जाती है। अण्डों से बने भ्रूणों को भी अन्य जन्तु खा जाते हैं, बहुत से भ्रूण अनुकूल वातावरण न मिल पाने के कारण नष्ट हो जाते हैं। पूर्ण वृद्धि के बाद भी माँसाहारी जन्तु इन्हें खा जाते हैं। इन सब कारणों से किसी जाति के सदस्यों की संख्या लगभग स्थिर बनी रहती है।

3. जीवन संघर्ष (Struggle of existence)

उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि जब जीवों की संख्या इतनी अधिक होने लगेगी तो उनमें भोजन, स्थान, जनन आदि के लिए संघर्ष होगा। यह संघर्ष भ्रूणावस्था से प्रारम्भ होकर जीवन पर्यन्त चलता है। इसलिए जीवों की उच्च संतानोत्पत्ति के बाद संख्या स्थिर होती है। जीवों में यह संघर्ष तीन प्रकार का होता है।

(i) अन्तः जातीय संघर्ष (Intra-specific struggle)- यह संघर्ष एक ही जाति के सदस्यों के मध्य होता है जैसे दो कुत्तों के मध्य रोटी फेंकने पर वे आपस में लड़ने लगते हैं। उनमें जो अधिक शक्तिशाली होगा वह रोटी को ग्रहण कर लेगा। अन्त: जातीय संघर्ष भोजन, स्थान, पानी, प्रकाश तथा प्रजनन योग्य साथी आदि के लिए होता है

(ii) अन्तर्जातीय संघर्ष (Inter-specific struggle)- विभिन्न जातियों के प्राणियों के मध्य होने वाले संघर्ष को अन्तर्जातीय संघर्ष कहते हैं। इनमें स्थान, भोजन, सुरक्षा आदि के लिए संघर्ष होता रहता है। यह संघर्ष भी अन्त: जातीय संघर्ष की भांति तीव्र होता है। यह संघर्ष तब और अधिक तीव्र हो जाता है जब एक जाति दूसरी जाति के जन्तुओं को भोजन के रूप में ग्रहण करती है। उदाहरण- शेर हिरण को मार कर खा जाता है, चूहों को देखते ही बिल्ली का इन पर झपटना।

(iii) पर्यावरणी संघर्ष (Environmental struggle)- पृथ्वी के वातावरण में होने वाले परिवर्तनों जैसे गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि से जीवों को संघर्ष करना पड़ता है।

4. योग्यतम की उत्तरजीविता या प्राकृतिक वरण (Survival of the fittest or Natural selection)

उपर्युक्त जीवन संघर्ष में केवल वे जीव जीवित रहते हैं जो व्यक्तिगत लक्षणों के कारण, पर्यावरण के प्रति अधिक अनुकूलित होते हैं अर्थात् जो योग्यतम होते हैं। जीवन संघर्ष में कुछ ही जन्तु सफल हो पाते हैं शेष असफल जन्तु नष्ट हो जाते हैं। डार्विन के मतानुसार प्रकृति जीवन संघर्ष द्वारा योग्य जीवों का चयन करती है। प्रकृति की इस प्रक्रिया को प्राकृतिक वरण (Natural selection) कहते हैं।

वातावरण सदैव परिवर्तित होता रहता है। बदलते वातावरण की अवस्थाओं के अनुसार जो जीव स्वयं संरचना, कार्य तथा स्वभाव में अनुकूल परिवर्तन की क्षमता रखते हैं, अधिक सफल सिद्ध होते हैं। शेष जीव जो अनुकूलन में असफल होते हैं जीवन में भी असफल रह जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं।

5. विभिन्नताएँ एवं आनुवंशिकता (Variations and Heredity)

प्राणियों में जीवन संघर्ष तथा लैंगिक जनन के फलस्वरूप इनमें विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है। विभिन्नताओं के कारण ही प्रकृति में कोई भी दो प्राणी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। ये भिन्नताएँ प्राणियों के रूप, रंग, आकार एवं स्वभाव आदि लक्षणों में होती है। विभिन्नताएँ उद्विकास का महत्वपूर्ण आधार है तथा एक बार उत्पन्न विभिन्नताएँ पीढ़ी दर पीढ़ी जारी रहती है। इन्हें वंशागत विभिन्नताएँ कहते हैं। विभिन्नताएँ लाभदायक एवं हानिकारक हो सकती है।

6. जाति उद्भवन (Origin of species)

नये लक्षणों की वंशागति, जीवन संघर्ष एवं विभिन्नताओं के कारण धीरे-धीरे ऐसे जीवों की उत्पत्ति होती हैं जो अपने पूर्वजों से भिन्न होते हैं। इस प्रकार नई जातियों का उद्भव होता है। डार्विन ने उपरोक्त आधारों पर निष्कर्ष निकाला की प्राकृतिक वरण द्वारा नई जातियों का उद्भव’ होता है। (origin of species through natural selection)

वातावरणीय कारक हमेशा समान नहीं रहते हैं तथा निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। बदले हुए वातावरणीय कारकों के अनुसार जन्तुओं की शारीरिक एवं कार्यिकी में परिवर्तन आवश्यक हो जाते हैं। इन कारकों के अनुकूल जन्तु ही जीवन संघर्ष में सफल हो पाते हैं। इस प्रकार कारकों द्वारा प्राकृतिक चयन सदैव होता रहता है। योग्यतम जन्तु ही जीवित रह पाते हैं। नई-नई उत्पन्न विभिन्नताओं के कारण, लम्बे समय अन्तराल के पश्चात् नई एवं पुरानी पीढ़ियों के सदस्यों में इतना अन्तर आ जाता है कि इन्हें अन्य जाति में वर्गीकृत किया जाता है। इस प्रकार एक जाति से नई जाति का उद्भव हो जाता है।

डार्विनवाद की आलोचना (Criticism of Darwinism)

डार्विनवाद जैव विकास की प्रक्रिया समझाने में सफल रहा था। अतः अधिकांश वैज्ञानिकों ने शीघ्र ही स्वीकार कर लिया। किन्तु यह सिद्धान्त कुछ प्रश्नों के समाधान नहीं कर सका। डार्विनवाद का मूल रूप नवडार्विनवाद के निम्न तथ्यों को समझाने में असफल रहा

  1. डार्विन ने विभिन्नताओं की वंशागति पर अधिक बल दिया था। किन्तु सभी विभिन्नताएँ वंशागत नहीं होती हैं। डार्विन ने विभिन्नताओं की उत्पत्ति एवं कारण की पूर्ण व्याख्या नहीं की थी।
  2. डार्विन ने बताया कि प्राकृतिक चयन द्वारा पूर्व उपलब्ध विभिन्नताओं में से हानिकारक विभिन्नताएँ लुप्त हो जाती हैं। उन्होंने नवीन आनुवंशिक विभिन्नताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जबकि ये आनुवंशिक विभिन्नताएँ ही जाति की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी होती है।
  3. डार्विन ने यह तो बताया कि जन्तु जाति के सदस्यों में विभिन्नतायें होती हैं परन्तु यह नहीं बताया कि ये विभिन्नताएँ, किस प्रकार से उत्पन्न होती है।
  4. डार्विन का सिद्धान्त अंगों के उपयोग एवं अनुप्रयोग एवं अवशेषी अंगों की उपस्थिति के महत्त्व को समझाने में असफल रहा।
  5. डार्विनवाद योग्यतम की उत्तरजीविता को तो समझाता है किन्तु योग्यतम नहीं बताता है।
  6. डार्विनवाद समन्वित संरचनाओं के समूह की उत्पत्ति को भी समझाने में असफल रहा है। उदाहरणार्थ पक्षियों में पंखों का विकास किसी प्रारम्भिक विभिन्नता के निरन्तर प्राकृतिक चयन द्वारा हुआ किन्तु पंखों के साथ-साथ इनसे सम्बन्धित पेशियों, अस्थियों, रक्त वाहिकाओं, तंत्रिकाओं आदि का विकास कैसे हुआ इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया।
  7. कुछ वैज्ञानिकों ने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जिनमें उपयोगी अंगों का विकास उपयोगिता की सीमा को पार कर इतना अधिक हो गया कि वे जन्तु के लिए हानिकारक सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ आयरिश बारहसिंगों के सिंग इतने बड़े हो गये कि अन्त में इनका विनाश व विलोप हो गया। इन कारणों की विवेचना भी डार्विन नहीं कर पाये।
  8. प्राकृतिक वरण किसी अंग या रचना के अतिविशिष्टीकरण को नहीं बताता जिससे कुछ जातियाँ नष्ट हो जाती है।
  9. वैज्ञानिकों ने प्रयोग द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि वातावरण के कारण जीवों में कार्यिक परिवर्तन संतति में वंशागत नहीं होते जबकि डार्विन ने कृत्रिम वरण द्वारा पालतु जानवरों की नस्ल सुधारने का वर्णन किया है।

नव डार्विनवाद (Neo-Darwinism)

डार्विन के अनुयायियों ने डार्विनवाद में आनुवंशिकी की नवीन खोजों को जोड़कर नव डार्विनवाद प्रस्तुत किया। जिसके मुख्य चरण निम्नानुसार है –

1. लैंगिक प्रजनन (Sexual reproduction)

लैंगिक जनन में युग्मकों के निर्माण के समय समजात गुणसूत्रों में जीन विनिमय होता है, जिसके फलस्वरूप छोटी-छोटी विभिन्नताएँ आ जाती है।

2. उत्परिवर्तन (Mutation)

उत्परिवर्तन के कारण जीव के जीनोम में परिवर्तन आता है। प्रयोगों से सिद्ध कर दिया गया है कि उत्परिवर्तन से आयी विभिन्नताएँ वंशागत होती है।

3. संकरण (Hybridisation)

विभिन्न किन्तु सम्बन्धित जातियों में संकरण से जीनों का मिश्रण होता है, जिससे नये लक्षणों का विकास होता है। धीरे-धीरे नये लक्षण स्थायी होकर नयी जाति में परिवर्तित हो जाते हैं।

4. लैंगिक पृथक्करण (Sexual isolation)

भौगोलिक कारकों (मरूस्थल, नदियाँ, समुद्र एवं पर्वत आदि) के प्रभाव से जीवों में अन्तर प्रजनन रूक जाता है। इस प्रकार पृथक हुए सदस्यों में नवीन वातावरण के अनुरूप अनुकूलन होते हैं।

5. जीन संचय (Gene pool)

एक जाति के सदस्यों के जीनों के योग को उस जाति की जीन संचय कहते हैं। जीन संचय एवं वातावरण में एक आनुवंशिक संतुलन पाया जाता है। यदि वातावरण में परिवर्तन हो जाता है तो उस वातावरण में पायी जाने वाली जाति के जीन संचय में भी परिवर्तन होता है। पृथ्वी के विकास में भिन्न-भिन्न समय पर वातावरण में भिन्नता रही है।

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