क्या है पैराथायरॉइड ग्रन्थि? यह ग्रन्थि हमारे शरीर में क्या कार्य करती है?, पैराथाइरॉइड हार्मोन , थाइमस ग्रंथि से कौन सा हार्मोन निकलता है, थाइमस ग्रंथि की अनियमितता से होने वाले रोग
पैराथाइरॉइड ग्रंथि – ये संख्या में चार होती हैं जो थाइरॉइड ग्रन्थि की पृष्ठ सतह पर पूर्ण या आंशिक रूप से धंसी होती हैं। थाइरॉइड ग्रन्थि के प्रत्येक पिण्ड पर दो पैराथाइरॉइड ग्रन्थि होती हैं। प्रत्येक ग्रन्थि छोटी (5x5mm) अण्डाकार व पीले रंग की होती है। प्रत्येक ग्रन्थि पंक्तियों में व्यवस्थित पॉलीगोनल कोशिकाओं की बनी होती है जो प्रिन्सीपल या चीफ व ऑक्सीफिल प्रकार की कोशिकाओं की बनी होती है। पैराथायरॉइड की उत्पत्ति एण्डोडर्म से होती है।
पैराथायरॉइड के हार्मोन (Functions of Para-thyroid ) –
पैराथायरॉइड से पैराथार्मोन नामक सक्रिय हार्मोन स्रावित होता है, जिसे कोलिप्स हार्मोन (फिलिप्स कोलिप, 1925) भी कहते हैं। इसे कोलिप ने 1925 में खोजा व शुद्ध रूप में प्राप्त किया। यह एक पॉलीपेप्टाइड हार्मोन है जिसमें 84 एमीनो अम्ल होते हैं।
पैराथार्मोन के कार्य (Functions of Paratharmon)
पैराथार्मोन जीवन के लिए आवश्यक है क्योंकि यह ECF में Ca व PO4 की मात्रा को नियंत्रित करके होमियोस्टेसिस बनाये रखने का कार्य करता है। ECF में कैल्सियम की निश्चित मात्रा (10.0 से 11.5mg/ 100 ml) होनी चाहिए (एक 70 किग्रा. के मनुष्य में कुल 1000 से 1120 होती है) क्योंकि कैल्सियम विभिन्न क्रियाओं का मुख्य तत्व है, जैसे-कोशिका झिल्ली की पारगम्यता, पेशीय संकुचन, तंत्रिका आवेग, हृदय दर, रुधिर स्कंदन, अस्थियों का निर्माण, अण्डाणु के निषेचन आदि । Ca+2 शरीर में सर्वाधिक मात्रा में पाया जाने वाला लवण है तथा लगभग 99% Ca+2 व PO4 अस्थियों में पाये जाते हैं।
कैल्सियम का सही स्तर बनाये रखना होमियोस्टेसिस के अन्तर्गत आता है। वास्तव में यह पैराथार्मोन, थायरोकैल्सीटोनिन का तथा विटामिन D3 (कोलेकैल्सीफेरोल) का संयुक्त कार्य है। पैराथार्मोन आंत्र में भोजन से कैल्सियम का अवशोषण बढ़ाता है, साथ ही यह मूत्र में फॉस्फेट का निष्कासन बढ़ाता है। इस प्रकार पैराथार्मोन के प्रभाव के कारण ECF में कैल्सियम अस्थि निर्माण करने वाली कोशिकाओं ओस्टियोब्लास्ट द्वारा अस्थि निर्माण में उपयोग कर लिया जाता है। अस्थि जब सर्वप्रथम बनती है तो असममित होती हैं। अस्थि के आवश्यक भाग अस्थि भक्षण करने वाली कोशिकाओं ओस्टियोब्लास्ट द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। यह प्रक्रिया पैराथार्मोन के प्रभाव में जारी रहती है। इसके परिणामस्वरूप रुधिर में कैल्सियम तथा फॉस्फेट मुक्त होते हैं।
विटामिन D एक स्टीरॉयड हार्मोन है जो सूर्य की अल्ट्रावायलेट (UV) किरणों के प्रभाव से पहले त्वचा की कोशिकाओं में 7- डीहाइड्रोकोलेस्ट्रॉल से निष्क्रिय रूप में बनता है। त्वचा कोशिकाएँ इसे रुधिर में मुक्त करती हैं। यकृत कोशिकाएँ इसे रुधिर से ग्रहण करके, 25- हाइड्रॉक्सीकोलेकैल्सीफेरॉल में बदलकर पुन: रुधिर में मुक्त कर देती हैं। अन्त में नेफ्रोन की समीपस्थ कुण्डलित नलिकाओं की कोशिकाएँ 25 हाइड्रोक्सी कोलेकै ल्सीफेरॉल को 1-25-डाई हाइड्रॉक्सी कोलेकैल्सीफेरॉल में पैराथार्मोन के प्रभाव से बदल देती हैं। यह अन्तिम उत्पाद विटामिन D या कोलेकैल्सीफैरॉल रुधिर में मुक्त कर दिया जाता है जो कोलेकैल्सीफेरोल (कैल्सीट्राइओल) कहलाता है।
हड्डी के नवीनीकरण के अतिरिक्त D; आंत से Ca+2 एवं Mg +2 आयन के अवशोषण को भी प्रेरित करता है। इसी प्रकार पैराथार्मोन भी Na’, K+ एवं HCO5 उत्सर्जन को प्रेरित करता है किन्तु Mg+2 सदैव इसको रोकता है।
पैराथार्मोन की अनियमितताएँ (Irregularities of Parathormones)
(1) हाइपोपैराथायराइडिज्म या पैराथार्मोन का अल्पस्त्रावण
(i) पैराथार्मोन की कमी शरीर प्रायः नहीं होती है। कमी होने पर ECF में कैल्सियम की मात्रा कम (हाइपोकैल्सिमिया) और फॉस्फेट की मात्रा अधिक (हाइपरफॉस्फेटीमिया) हो जाती है। इसके कारण तंत्रिका पेशीय अतिउत्तेजनशीलता, अत्यधिक पसीना निकलना, गुजफ्लेश (बालों का खड़ा होना एवं त्वचा में चुभने वाली संवेदना), हाथ व पैरों का ठण्डा होना, दर्दयुक्त पेशीय ऐंठन तथा कम्पन होने लगते हैं।
(ii) कभी-कभी कंकालीय पेशियाँ सामान्यतया हाथ और पैर की पेशियाँ एक संकुचन के बाद शिथिल नहीं होती हैं और संकुचित अवस्था में बनी रहती हैं। इसे टिटेनी कहते हैं। टिटेनी कंठ, वक्ष और फ्रेनिक पेशियों में हो जाती है। ये पेशियाँ श्वसन में सहायता करती हैं। इन पेशियों में संकुचन होने से रोगी सांस नहीं ले पाता (एसफाक्सिया) और रोगी की मृत्यु हो जाती है।
(iii) बचपन में अल्पस्त्रावण से वृद्धि रुक जाती है तथा दांतों, हड्डियों, बालों एवं मस्तिष्क का विकास पूरा नहीं हो पाता है। इन बच्चों को विटामिन D खिलाने से रोग से मुक्ति मिलती है।
(2) हाइपरपैराथायराइडिज्म या पैराथार्मोन का अतिस्त्रावण
(i) ओस्टियोपोरोसिस-यह पैराथाइराइड ग्रन्थियों की अतिवृद्धि से प्राय: हो जाता है। इससे हड्डियाँ गलकर कोमल, कमजोर एवं भंगुर हो जाती हैं। इसे ओस्टियोपोरोसिस रोग कहते हैं।
(ii) हाइपरकैल्सिमिया-धीरे-धीरे रक्त एवं ECF में कैल्सियम बढ़ जाने (हाइपरकैल्सिमिया) एवं फॉस्फेट के कम हो जाने (हाइपोफॉस्फेटीमिया) से तंत्रिकाएँ एवं पेशियाँ क्षीण हो जाती हैं।
(iii) हाइपरकैल्सियूरिया – मूत्र में कैल्सियम उत्सर्जित (हाइपरकैल्सियूरिया) हो जाने से प्यास बढ़ जाती है, भूख समाप्त हो जाती है, कब्ज हो जाती है, सिरदर्द होने लगता है तथा वृक्कों में पथरी बनने की सम्भावना हो जाती है। ग्रन्थियों के बढ़े हुए भागों को काटकर हटा देने पर ही इन रोगों से मुक्ति मिलती है।
पैराथार्मोन और थाइरोकैल्सिटोनिन के स्त्रावण पुनर्निवेशन नियंत्रण (Feedback Control of Secretion of Parathormone and Thyrocalcitonin)
दोनों हार्मोन्स का स्त्रावण एक प्रत्यक्ष नकारात्मक पुनर्निवेशन के द्वारा नियमित रूप से नियंत्रित होता है। यदि Ca+2 का स्तर कम हो जाता है तो पैराथार्मोन का स्रावण बढ़ जाता है। लेकिन थाइरोकैल्सिटोनिन कम हो जाता है। इसी तरह जब रक्त में Ca+2 का स्तर बढ़ जाता है तब पैराथार्मोन का स्रावण कम हो जाता है और थायरोकैल्सिटोनिन बढ़ जाता है।
थाइमस ग्रन्थि (Thymus Gland)
यह ग्रन्थि हृदय से आगे स्थित होती है। यह चपटी गुलाबी रंग की द्विपिण्डकीय रचना है। ये पिण्ड संयोजी ऊतक से ढके रहते हैं। इसका उद्गम एन्डोडर्म से हुआ है तथा यह भ्रूण की तीसरी क्लोमधानी है से बनी है। यह ग्रन्थि जन्म के समय विकसित होती है तथा मनुष्य से 10 वर्ष या यौवनावस्था तक बड़ी होती रहती है। इसके बाद आकार में 8 से 10 वर्ष या यौवनावस्ता तक बड़ी होती रहती है।
इसके बाद आकार में घटने लगती है और अन्त में वृद्धावस्था में एक सन्तुकीय होरी के रूप में रह जाती है। इसको बाहरी सतह पर लिम्फोसाइट्स जमा रहती हैं जो शिशुओं में जीवाणुओं के संक्रमण से शरीर की रक्षा करती हैं। जन्म के समय के बाद लिम्फोसाइट्स इस ग्रन्थि से निकलकर प्लीहा (spleen), पेयर की पैन्स (Peyer’s patenes) तथा लसीका गांठों में प्रवेश करती हैं।
थाइमस ग्रन्थि थाइमोसीन (thymosin) हामोन भी बनाती है। थाइमोसीन लिम्फोसाइट्स को जीवाणुओं या इनके द्वारा मुक्त प्रतिजन पदार्थों (antigens) को नष्ट करने की प्रेरणा देता है। इसके बाद लिम्फोसाइट्स विभाजित होकर प्लाज्मा में आ जाती हैं और प्रतिरक्षी (antibodies) बनाकर शरीर की रक्षा करती हैं।
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