पारिस्थितिकीय उपागम का अर्थ Meaning of Ecological Approach
लोक प्रशासन में तुलनात्मक अध्ययनों के क्रम में पारिस्थितिकीय उपागम एक महत्त्वपूर्ण उपागम है। यह उपागम जीव विज्ञान के पारिस्थितिकीय (पर्यावरणीय) दृष्टिकोण पर आधारित है, जिसके अनुसार जीव-जन्तु एवं वनस्पति अपने बाह्य वातावरण के अनुकूल स्वयं को ढाल लेते हैं। यद्यपि लोक प्रशासन की संस्थाएँ तथा संगठन सावयवी नहीं हैं तथापि इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली अवश्य ही पर्यावरणीय कारकों से प्रभावित होती है प्रशासनिक व्यवस्थाओं का संचालन मनुष्यों द्वारा होता है और मानव अपने सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा भौगोलिक पर्यावरण से अत्यधिक प्रभावित होता है। अतः प्रशासनिक तन्त्र को उसके आस-पास के पर्यावरण (वातावरण) के संदर्भों में भी समझा जाना चाहिए।
प्रो. फ्रेड रिग्स ने ‘लोक प्रशासन की इकॉलाजी (The Ecology of Public Administration) नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में रिग्स ने प्रशासनिक व्यवहार का अध्ययन करने के लिए इकोलॉजिकल (पर्यावरणीय) दृष्टिकोण तथा अनुभव पर आधारित तुल विश्लेषण का उल्लेख किया है। उन्होंने अपनी इस कृति में विकासशील देशों के अध्ययन के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण अपनाया है। उनका मत है कि लोक प्रशासन का अध्ययन करने के रह लिए उसको वातावरण से सम्बन्धित करने का व्यवस्थित प्रयास होना चाहिए।
उनके अनुसार किसी भी देश की राजनीतिक व प्रशासनिक संस्थाओं एवं नौकरशाही को तभी अच्छी तरह से घर समझा जा सकता है जब उनके चारों ओर के वातावरण, परिस्थितियों, शक्तियों एवं प्रभावों को पूर्ण रूप से जान लिया व समझ लिया जाय, जो उनको रूप देने तथा उनको बदलने में मदद करती है। इन प्रभाव डालने वाले तत्त्व में मुख्य तत्त्व हैं—(क) सामाजिक व्यवस्था, (ख) आर्थिक व्यवस्था, (ग) राजनीतिक व्यवस्था, (घ) प्रशासनिक व्यवस्था ।
इकोलॉजिकल उपागम के प्रमुख समर्थक लोक-विज्ञानी Major proponents of ecological approach
पर्यावरणीय (पारिस्थितिकीय) उपागम के समर्थक विद्वानों में जॉन एम. गॉस, रॉबर्ट ए. डहाल, रोस्को मार्टिन तथा एफ. डब्ल्यू. रिग्स प्रमुख हैं। पारिस्थितिकीय उपागम की मूल मान्यता यह है कि प्रशासनिक व्यवहार, बाह्य पर्यावरण जैसे संस्कृति, समाज, मूल्य, परम्पराओं तथा समस्याओं इत्यादि का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, प्रशासनिक प्रक्रिया एक ऐसी व्यवस्था है जिसकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है, जो निस्सन्देह बाह्य सामाजिक संस्कृति का ही विस्तार है। जॉन एम. गॉस के अनुसार, “सरकारी कार्यों पर जनता, स्थान, भौतिक सुविधाओं, मूल्यों, परम्पराओं तथा व्यक्तित्व इत्यादि का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
अतः लोक प्रशासन का अध्ययन पारिस्थितिकीय कारकों को सम्मिलित करके किया जाना चाहिए क्योंकि पर्यावरण तथा प्रशासन आपस में क्रिया प्रतिक्रिया करते हैं। प्रशासनिक संगठन अपने आपमें स्वतन्त्र चर के रूप में कार्य नहीं कर सकते बल्कि वे आस-पास के सामाजिक संगठनों इत्यादि से प्रभावित रहते हैं। अतः लोक प्रशासन में केवल संगठनों की आन्तरिक संरचना, कार्य, प्रक्रिया तथा व्यवस्था को जानना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि संगठन किस माहौल में कार्यरत है, यह जानना अधिक उपयोगी एवं सार्थक है।
पर्यावरणीय उपागम की मान्यताएँ या विशेषताएँ Recognition or Characteristics of Environmental Approach
रॉबर्ट ए. डहल के अनुसार, “एक स्थान पर लोक प्रशासन के अध्ययन में यदि कुरा निष्कर्ष प्राप्त हो तो उनका दूसरे स्थान पर स्थित प्रशासनिक संस्थाओं पर परीक्षण करके हो कुछ सिद्धान्त विकसित किए जा सकते हैं। प्रत्येक स्थान पर पारिस्थितिकी एक समान नहीं होती है। अतः इससे प्रशासनिक सिद्धान्तों का भली-भाँति परीक्षण हो जाता है। लोक प्रशासन में सामान्यीकृत नियम प्रतिपादित करने के लिए इसकी प्रविधियों तथा तकनीकी प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में ज्ञान का दायरा विस्तृत करना होगा।
अतः प्रशासन के ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सन्दर्भों को विश्लेषित किया जाना चाहिए।” इसी प्रकार के विचार प्रो. रिग्स के हैं। उनके अनुसार जिन समाजों में आदिमकालीन तथा आधुनिक दोनों प्रकार की संगठनात्मक विशेषताएँ मिलती है, वहाँ अध्ययन की प्रवर्तित प्रणालियों उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती हैं क्योंकि मानव तथा प्रशासन की अपनी एक विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था होती है। प्रो. रिग्स ने विकास प्रशासन के संदर्भ में संकर सांस्कृतिक अध्ययनों को महत्त्व दिया है। नौकरशाही भी सामाजिक संगठन है अतः इसका पारिस्थितिकीय अध्ययन होना चाहिए। पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण की मान्यताएँ या विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं
(1) तुलनात्मक लोक प्रशासन के सार्वभौमिक नियम प्रतिपादित करने के लिए उनका तुलनात्मक पारिस्थितिकीय अध्ययन परम आवश्यक है। रहती है।
(2) प्रत्येक प्रशासनिक व्यवस्था बाह्य वातावरण से निरन्तर क्रिया प्रतिक्रिया करती
(3) प्रशासन केवल बाह्य वातावरण से प्रभावित ही नहीं होता बल्कि वह स्वयं पर्यावरण को प्रभावित भी करता है।
(4) प्रो. रिग्ज के अनुसार समाज की कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं जो परम्परागत, आधुनिक तथा संक्रमणकालीन सभी प्रकार के समाजों में समान रूप से पाई जाती हैं। इसी में प्रकार कुछ प्रशासनिक आवश्यकताएँ भी हो सकती हैं।
(5) प्रत्येक प्रशासनिक व्यवहार, प्रशासन संगठनों के बाह्य एवं आन्तरिक पर्यावरण एवं विभिन्न कारकों का मिला-जुला परिणाम है।
(6) किसी संगठन की आन्तरिक प्रशासनिक कार्य संस्कृति उस देश या समाज के मूल्यों तथा परम्पराओं से बहुत अधिक प्रभावित रहती है।
(7) लोक प्रशासन शून्य में निवास नहीं करता है बल्कि यह मानव समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है।
(8) जिस प्रकार मानव, जीव-जन्तु तथा वनस्पतियाँ अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित होते हैं, उसी प्रकार प्रशासनिक संगठन भी सम्बन्धित सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित होते हैं।
इस प्रकार पर्यावरणवादी दृष्टिकोण की मूलभूत मान्यताएँ हैं कि सरकारी नौकरशाही समाज की मौलिक संस्थाओं में से एक है अतः इसके कार्यों एवं इसकी संरचना का अध्ययन दूसरी सामाजिक संस्थाओं के साथ इसकी क्रिया-प्रतिक्रिया के विशेष संदर्भ में ही किया जाना चाहिए।
यदि हम किसी फूल की रचना का सही-सही ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं तो इसके लिए हम उस पेड़, उसकी पत्तियाँ, उसकी शाखाएँ, उसकी जड़, उसकी प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थिति आदि सभी का ज्ञान प्राप्त करना होगा, जिसका सम्बन्ध उस फूल से है। अन्यथा मारे निष्कर्ष तथ्यों से भिन्न एवं काल्पनिक बन जावेंगे।
लोक प्रशासन के अध्ययन में इस पर्यावरणवादी दृष्टिकोण के महत्व का वर्णन फ्रेड ब्स के अलावा जॉन एम. गौस (John M. Gaus), राबर्ट ए. डहल (Robert A. Dahl), स्को मार्टिन (Roscoe Martin) आदि विद्वानों ने भी किया है। प्रो. रिग्स का कहना है कि अनुभव की हुई बात तथा पर्यावरण के अध्ययन के द्वारा प्राप्त जानकारी से ही लोक प्रशासन में ही और सच्ची तुलना हो सकती है। उनके अनुसार एक समाज में अनेक संस्थाएँ कार्य करती इसमें प्रशासनिक संस्थाओं को एक उपव्यवस्था (Sub-System) कहा जा सकता है।
प्रो. फ्रेड रिग्स का सम्पूर्ण अध्ययन एक ओर तो प्रशासनिक उपव्यवस्था और दूसरी ओर समाज की राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक उपव्यवस्थाओं के बीच की अन्तःक्रियाओं का अध्ययन है। रिग्स का मत है कि किसी देश के लोक प्रशासन की प्रकृति को जानने के लिए वहाँ के सामाजिक वातावरण को जानना भी आवश्यक है। तुलनात्मक लोक प्रशासन के विभिन्न समाजों में विभिन्न समाज व्यवस्थाओं का पर्यावरणवादी विश्लेषण करने में संगठनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण (Structural-Functional Approach) उपयोगी है। पर्यावरणीय उपागम की सीमाएँ या आलोचनाएँ
पारिस्थितिकीय उपागम लोक प्रशासन के अध्ययन का मुख्य उपागम बन चुका है। इस उपागम को प्रयोग में लाना सरल तो है, किन्तु कुछ समस्याएँ सामने आती हैं। ये निम्न प्रकार हैं
(1) विश्व के सभी देशों तथा यहाँ तक कि भारत जैसे देश में जहाँ कुछ मील पर वेशभूषा, बोली तथा पानी बदल जाते हैं, वहाँ सामाजिक व्यवस्था तथा प्रशासनिक संस्कृति का विश्लेषण जटिल प्रतीत होता है। सामान्यीकरण की ओर पहुँचना तो बहुत दूर की बात है।
(2) प्रत्येक शोधकर्ता सामाजिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक मूल्यों को अपनी दृष्टि से देखता है अत: दूसरे देश की सांस्कृतिक विरासत को समझना एक कठिन ही नहीं जटिल कार्य भी है। भारतीय ‘जाति’ की अवधारणा को प्रशासन के साथ समझना सरल कार्य नहीं है।
(3) चूँकि मानव व्यवहार तथा समाज जटिल संरचनाएँ हैं अतः यह ठीक-ठीक अनुमान लगाना कठिन है कि सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन प्रशासन के द्वारा आ रहे हैं या अन्य कारकों से ।
इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित सीमाएँ या कमियाँ पारिस्थितिकीय उपागम की कम तथा उपयोगकर्ताओं तथा समाज की अधिक हैं फिर भी यह उपागम बहुत उपयोगी परिणाम दे सकता है। इसी उपागम की भाँति एक अन्य उपागम फ्रेड लुथांस ने प्रतिपादित किया है। आकस्मिकता (Contingency) उपागम नामक इस दृष्टिकोण में ‘यदि —तों’ (If then) पर बल दिया जाता है अर्थात् ‘यदि’ बाह्य वातावरण में कुछ घटित हो ‘तो’ प्रबन्ध कैसे कदम उठाएगा। यह उपागम भी प्रशासन की पारिस्थितिकीय परिस्थितियों तथा घटनाओं पर ध्यान आकृष्ट करता है।
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