जैव प्रौद्योगिकी परिभाषा, जैव प्रौद्योगिकी का महत्व, जैव प्रौद्योगिकी क्या है? सिद्धांत एवं प्रक्रम,महत्व,उपयोग, भारत में जैवप्रौद्योगिकी (Biotechnology in India)
जैवप्रौद्योगिकी (biotechnology) शब्द बायो जैविक (bio) एवं टैक्नोलॉजी = प्रौद्योगिकी = (technology) शब्दों के योग से बना है। जैवप्रौद्योगिकी जैविक प्रक्रियाओं के अनुप्रयोगों (applied biological processes) से संबंधित विज्ञान है।
जैवप्रौद्योगिकी क्षेत्र में अत्यन्त विविधता पूर्ण विषय शामिल हैं। हजारों वर्षों पहले से ही ज्ञात सूक्ष्मजैविक किण्वन (जैसे-सोमरस का बनाना, दही का जमना), विभिन्न प्रकार की निदानी तकनीकें ( diagnostic techniques) जैसे प्रतिरक्षी (antibodies) अथवा न्यूक्लिक अम्ल प्रोब्स (probes) के उपयोग द्वारा निदान, विभिन्न महत्त्वपूर्ण जैविक अणुओं जैसे-हार्मोन, प्रतिजैविक (antibiotics), प्रतिरक्षी, वैक्सीन (vaccine) इत्यादि का उत्पादन, पुनर्योजन DNA तकनीक, PCR तकनीक, विभिन्न प्रकार के ऊतक संवर्धन तकनीकों द्वारा अनेक पादप व जंतु किस्मों का बनाना तथा उनके उत्पादों व नवीन (novel) उत्पादों का उत्पादन इत्यादि सम्मिलित किये जाते हैं,
जैव प्रौद्योगिकी की परिभाषा definition of biotechnology
1. ब्रिटिश वैज्ञानिकों के अनुसार विभिन्न जैविक जीवतंत्रों अथवा जैविक प्रक्रियाओं का मानव हित के लिए औद्योगिक अनुप्रयोग जैवप्रौद्योगिकी है |
2. आर्थिक विकास एवं सहयोग हेतु संगठन (OECD) ( The Organisation for Economic Cooperation and Development, 1981) के अनुसार “जैविक कारकों के द्वारा वैज्ञानिक एवं अभियांत्रिकी सिद्धान्तों के अनुप्रयोग द्वारा विभिन्न पदार्थों के उत्पादन का जैवप्रौद्योगिक कहते हैं |
3. जैव प्रौद्योगिकी की यूरोपियन फैडरेशन EFB के अनुसार तकनीकी एवं औद्योगिक अनुप्रयोग के लिए रसायन, सूक्ष्मजीव, संवर्धित ‘उत्तकों व उनके अंगों की क्षमताओं के तकनीकी उपयोग के लिए जैव रसायन सूक्ष्मजैविकी, कोशिका विज्ञान एवं अभियांत्रिकी का समाकलित उपयोग के रूप में जैवप्रौद्योगिकी को परिभाषित किया जा सकता है।
जैवप्रौद्योगिकी का इतिहास (History of Biotechnology)
जैवप्रौद्योगिकी का उद्गम किण्वन प्रक्रिया (fermentation) जितना ही पुराना (लगभग 2500 (BC) है जब मनुष्य सूक्ष्मजीवों का उपयोग कर दही, सिरका एवं शराब इत्यादि बनाता था। बेबीलोनिया एवं मिश्र (Egypt) में अनेकों व्यावसायिक मद्य निर्माणशालाओं (breweries) को मिलना इस के प्रमाण हैं। फ्रांस में 14वीं शताब्दी में सिरका उद्योग आरम्भ हुआ। 1857 में लुई पाश्चर (Louis Paster) ने बताया कि लैक्टिक अम्ल किण्वन (lactic acid fermentation) सूक्ष्मजीवों के द्वारा होता है।
बुकनर (Buchner, 1897) के अनुसार एन्जाइम ( enzyme) कोशिका के बाहर भी (extracellularly) क्रियाशील रह कर शर्करा से एल्कोहॉल निर्मित कर सकते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी में बुकनर द्वारा कोशिका रहित किण्वन (cell free fermentation) की खोज का लाभ उठाते हुए व्यावसायिक स्तर पर औद्योगिक किण्वन के द्वारा ग्लिसरोल (glycerol) बनाया गया। 1920 में चेन वीजमैन (Chain Wermann) ने क्लोस्ट्रीडियम ब्यूटायलिकम (Closridium butylicum) के उपयोग द्वारा ब्यूटेनॉल (butanol) एवं एसिटोन (acetone) निर्मित किया। एसिटोन को प्रथम विश्व युद्ध में विस्फोटकों (explosives) में समावेशित किया गया था। लुई पाश्चर द्वारा किण्वन की खोज ने औद्योगिक जैवप्रोद्योगिकी (Industrial biotechnology) की नींव रखी।
1928 में अलैक्सैंडर फ्लैमिंग (Alexander Flemming) द्वारा पेनिसिलीन (penicillin) की खोज के साथ ही एक प्रकार से जैवप्रौद्योगिकी की पुनः खोज हुई इस खोज ने प्रतिजैविक (antibiotic) उद्योग की नींव रखी, जब 1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पेनिसिलियम नोटेटम (Penicilium notatum) से वृहत स्तर (large sacle) पर पेनिसिलिन बनाया गया। 1944 में शाज एवं वाक्समैन, (Schtaz and Walksmann) ने स्ट्रैप्टोमाइसिन (Streptomycin) की खोज की। 1950 से अब तक, अनेकों ऐसे प्रतिजैविकों खोजे जा चुके हैं जिनका निर्माण व्यवसायिक स्तर पर किया जाता है।
वाटसन एवं क्रिक (Watson and Crick, 1953) ने आनुवांशिक पदार्थ, DNA की संरचना प्रस्तुत की 1962 में कनाड़ा में सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके यूरेनियम के खनन (mining) की शुरुआत हुई। 1970 में स्मिथ एवं साथियों (Smith et al.) ने रेस्ट्रिकशन (restriction) एन्जाइम की खोज की जो कि DNA को विशिष्ट स्थलों ( specific sites) पर से तोड़ने की क्षमता रखते हैं। उन्होंने जीवाणु के DNA को विशिष्ट स्थलों से काटा और दूसरे जीवाणु के गुणसूत्रीय (chromosomal) DNA के साथ संयुक्त करने में सफलता प्राप्त की।
यहीं से आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी अथवा पुर्नयोजी DNA तकनीकी का आरम्भ हुआ। 1975 में कोहलर एवं मिलस्टीन (Kohler and Milstein) ने हाइब्रिडोमा तकनीक (hybridoma technology) द्वारा लिम्फोसाइट्स (lymphocytes) एवं मायलोमा कोशिकाओं (myeloma cell) के संलयन (fusion) से एकलक्लोनी प्रतिरक्षी (monoclonal antibodies) का निर्माण किया।
सन् 1970 के बाद से, जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तीव्र गति से प्रगति हुई। अनेकों उत्पाद बनाये गए तथा व्यावसायिक उपयोग के लिए स्वीकृत भी किए गए। 1981 में संयुक्त राज्य ने रोगों के निदान (diagnosis) हेतु मोनोक्लोनल (monoclonal) प्रतिरक्षियों (antibodies) के उपयोग के लिए स्वीकृति दे दी। 1978 में पहली बार आनुवंशिकीय रूपांतरित (genetically modified) ई. कोलाई (E. coli) कोशिकाओं से इन्सुलिन निर्मित किया जिसे 1992 में रोगोपचार के लिए स्वीकृति मिल गई। इसके अनुवंशिकीय अभियांत्रित (genetically engincered) सूक्ष्मजीवों से बने वृद्धि हार्मोनों को बौनापन के उपचार के लिए भी स्वीकृत मिल गई। मोनोक्लोनल प्रतिरक्षियों (monoclonal antibodies) का रोग निदान में अत्यधिक उपयोग होने लगा व आनुवंशिकी अभियांत्रित हिपेटाइटिस टीके (Hepatitis vaccine) की खोज हुई।
19वीं शताब्दी में सूक्ष्मजीवों का उपयोग तेल कूपों (oil wells) में से तेल निकालने के लिए। प्रारम्भ हुआ। औद्योगिक कचरे (industrial waste) से धातु निष्कर्षण (extraction) के लिए सूक्ष्मजीवों के उपयोग की संभावनाओं पर विचार हुआ। पुनयोजन DNA तकनीक की चिकित्सा, कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र में अत्यधिक संभावनाएं हैं।
जैवप्रौद्योगिकी के आयाम (Aspects of Biotechnology)
जैवप्रौद्योगिकी एक नवीन, तेजी से बढ़ता हुआ बहुविज्ञान (multidisciplinary) आधारित विज्ञान है जिसमें विज्ञान की अनेक शाखाओं से जानकारी एवं ज्ञान का समावेश होता रहता है। इसमें ऊतक संवर्धन (tissue culture), अणुजैविकी (molecular biology), जीन अभियांत्रिकी (genetic engineering), प्रतिरक्षा विज्ञान (immunology), किण्वन तकनीक (fermentation technology) तथा सूक्ष्मजैविकी इत्यादि शामिल है।
भारत में जैवप्रौद्योगिकी (Biotechnology in India)
विज्ञान के क्षेत्र में इस शताब्दी की प्रथम क्रांति आण्विक ऊर्जा, द्वितीय क्रांति कम्प्यूटर और तृतीय क्रांति जैवप्रौद्योगिकी है। अन्य देशों के समान हमारे देश ने भी इस क्षेत्र में भी प्रगति की है फिर भी विकसित देशों और विकास के लिए प्रयत्नशील देशों में वैज्ञानिक प्रगति दर व प्रसार में अंतर होना स्वाभाविक है क्योंकि विकासशील देशों को वैज्ञानिक उन्नति के अलावा अन्य कई समस्याओं से भी लगातार जूझना पड़ता है।
जैवप्रौद्योगिकी में हमारी प्राथमिकताएँ
हमारे देश में सूखा (अकाल), बाढ़, जनसंख्या विस्फोट, उन्नत पशुधन का अभाव, खाद्य की कमी, उर्वरकों का आयात, स्वास्थ्य सेवाओं में कमी, विभिन्न रोग आदि अनेक गम्भीर समस्याएँ हैं जिनके कारण वैज्ञानिक अनुसंधान की प्राथमिकता पीछे रह जाती है। सौभाग्यवश हमारा देश कई क्षेत्रों में जैसे—सशक्त कृषि आधार, प्रचुर सौर ऊर्जा, खनिज भण्डार, समुद्री संसाधन इत्यादि में अन्य कई विकासशील देशों को अपेक्षा अधिक उत्तम स्थिति में हैं।
इस समय में हमारी प्राथमिकताएँ जैवप्रोद्यौगिकी के उन क्षेत्रों का चयन है जिनके परिणाम हमारी अन्य गम्भीर समस्याओं का निवारण करने में उपयोगी हो सके, ये क्षेत्र हैं—फसल उत्पादन की अधिक वृद्धि दर, फसलों की रोग प्रतिरोधी किस्मों का विकास, जैवउर्वरकों का कम लागत में में उत्पादन, जैवकीटनाशी का उत्पादन आदि।
हमें एकल कोशिका प्रोटीन, शैवाल प्रोटीन तथा मशरूम कृषि पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। चिकित्सा क्षेत्र में हमारे देश में होने वाले रोगों के प्रति उपयुक्त वेक्सीन प्रौद्योगिकी तथा जन्म दर कम करने के लिए उपयुक्त उत्पाद की प्राथमिकता है। प्रौद्योगिकी आधारित कृषि उद्योगों व कोशिका संवर्धन के साथ उत्तक संवर्धन से जैवरसायन उत्पादन आवश्यक पहलू है। प्रचुर जैवविविधता व अपार सौर ऊर्जा की उपलब्धि के कारण ऐल्कोहॉल ईधन उत्पादन व बायोगैस की कम लागत वाले संयंत्रों का निर्माण जैवप्रौद्योगिकी के अन्य क्षेत्र हैं।
भारत में सशक्त कृषि आधार के कारण पशुधन प्रौद्योगिकी का विकास भी आसानी से हो सकता है। भारत प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से कार्यरत है। निजी व सार्वजनिक क्षेत्र, जैवप्रौद्योगिकी आधारित उद्योगों को लगाकर महत्त्वपूर्ण योगदन कर रहे हैं। वर्तमानमें जैवप्रौद्योगिको क्षेत्र में प्रगति भारत सरकार द्वारा स्थापित व संचालित संस्थानों का परिणाम है।
भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयास
देश का जैवप्रौद्योगिकी विभाग फरवरी, 1986 में विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय द्वारा स्थापित किया गया था। उस समय इस विभाग का प्रमुख उद्देश्य आयोजना बनाना प्रोत्साहन व जैवप्रौद्योगिकी कार्यक्रमों व में परस्पर सामंजस्य बनाये रखने के लिए आवश्यक व्यवस्था तंत्र विकसित करना था। वर्तमान में यह विभाग के निम्न कार्य कर रहा है
- एकीकृत आयोजनाओं व कार्यक्रमों का विकास करना।
- देश की जरूरत के अनुसार जैवप्रौद्योगिकी में विशिष्ट क्षेत्रों का अभिज्ञान कर उनमें अनुसंधान व उत्पादन में सम्बन्ध स्थापित करना ।
- राष्ट्रीय स्तर पर जैवप्रौद्योगिकी के लिए अवसंरचना (infrastructure) को स्थापित करना ।
- सरकार के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में पुनर्योजी डीएनए तकनीक पर आधारित जैवप्रौद्योगिकीय अक्रमणों, उत्पादों व तकनीक आदि का आयात करना । को विकसित करना।
- आवश्यक जैव संरक्षा (biosafety) की मार्गदर्शिका
- इस क्षेत्र में योग्य प्रशिक्षित जनशक्ति तैयार करना।
- अन्य देशों में हुए कार्यों को जानकारी व परस्पर अर्न्तक्रिया के लिए अर्न्तराष्ट्रीय आनुवंशिक अभियांत्रिकी व जैवप्रौद्योगिकी केन्द्रों को स्थापित करना ।
1986 से वर्तमान तक की प्रगति
1. सूक्ष्मजीव प्रभेदों का संग्रहण व जीन बैंक की स्थापना ।
2. नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले नील हरित शैवाल समूह आधारित कृषि को राष्ट्रीय स्तर पर सुविधाएँ प्रदान करना।
3. राष्ट्रीय स्तर पर कुलक संवर्धन अध्ययन, अनुसंधान व अनुप्रयोग के लिए जरूरी सुविधाएँ प्रदान करना तथा संवर्धन आधान (repositary) के लिए राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक स्रोत संस्थान (National Bureau of Plant Genetic Resources, NBPGR) की दिल्ली में स्थापना |
4. सीडीआईआई (CDRI) लखनऊ, एनआईएन (NIN), हैदराबाद तथा आईआईएससी (IISC), बेंगलोर में पशु आवास सुविधाओं की स्थापना।
5. आईएमटीईसीएच (IMTECH), चण्डीगढ़ में जैवरासायनिक अभियांत्रिकी अनुसंधान व अक्रमणो के विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सुविधाएँ दी गई है।
6. सीएसआईआर (CSIR), नई दिल्ली में जैवरसायन केन्द्र स्थापित किया गया है जिसमें अनेकों ऑलिगोन्यूक्लिओटाइड, लिकर, रेस्ट्रिक्शन एन्जाइमों, चिन्हकों व प्लासिाहों को उत्पादित करवाया जाता है।
7. वर्ष 1986 में विज्ञान एवं टेक्नोलोजी मंत्रालय ने नामोटेक्नोलोजी विभाग (Department of Biotechnology, DBT) की स्थापना की। पादप आण्विक जैविकों (plant molecular hiology) में उच्च शोध के लिए DBT निम्न संस्थाओं में सात पादप आण्विक केंद्रों की स्थापना की है।
(i) मदुरै कामराज विश्वविद्यालय, मंदरे (तमिलनाडु),
(ii), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
(ii) दिल्ली विश्वविद्यालय, दक्षिण कैंपस नई दिल्ली
(iv) उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद
(v) बोस संस्थान, कलकत्ता
(vi) तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय,
(vii) कोयम्बटूर राष्ट्रीय वानस्पतिक शोष संस्थान (NBRI), लखनऊ।
इन केंद्रों को जैवप्रौद्योगिकी, एवं विधियों द्वारा फसल सुधार में उपयोग संबंधी उच्च स्तरीय शोध के लिए में उच्च स्तरीय आर्थिक अहायता दी गई है।
8. वन-वृक्षों एवं फल-वृक्षों के सूक्ष्मप्रवर्धन के लिए DBT ने निम्न तीन संस्थाओं में आरम्भिक संयंत्रों plants) की स्थापना की है: (i) यदा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान (TERI), नई दिल्ली (pilot (ii) राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (NCL), पूर्ण एवं जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर। इन आरम्भिक संयंत्रों ने कार्य करना शुरू कर दिया है। इन संयंत्रों ने कई वन वृक्षों जैसे सागौन, यूकेलिप्टस, पाप्लर आदि को सफलतापूर्वक अवधित किया गया है।
9. बायोटेक्नोलोजी में निपुण जन-शक्ति के विकास के लिए DET ने स्नातकोत्तर एवं वाचस्पति शिक्षा केन्द्रों को स्थापित किया है। स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए 21 से अधिक केन्द्र देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में खोले गए हैं। उत्तरार्थ-वाचस्पति शिक्षा केन्द्र तीन संस्थानों में स्थापित किए गये हैं।
10. संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने एक अंतर्राष्ट्रीय आनुवंशिक इंजीनयरी एवं बायोटेक्नोलोजी केन्द्र (International Centre for Genetic Engineering and Biotechnology, ICGEB) को स्थापित किया है। ICGEB का एक संस्थान ट्रिएस्टे, इटली तथा दूसरा नई दिल्ली में है। नई दिल्ली केन्द्र की स्थापना 1987 में हुई थी।
[11] DBT ने जूननद्रव्य (germplasm) संग्रह एवं संरक्षण के लिए भी कई योजनाओं को प्रारम्भ किया है। राष्ट्रीय मादर आनुवांशिक संपदा न्यूरो (NBPGR) नई दिल्ली में क्लोनीय फसलों के Facility जननद्रव्य संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय पादप ऊतक संवर्धन आधान सुविधा (National of Plant Tissue Culture Repository) की स्थापना की गई है। इसके अलावा औषधीय एवं ऐरोमेटिक पौधों के जननद्रव्य संरक्षण के लिए निम्न संस्थानों में तीन जीन बैंकों को स्थापित किया गया है (i) केन्द्रीय औषधीय एवं ऐरोमेटिक पादप संस्थान (CIMAP), लखनऊ (ii) उष्णकटियीय वानस्पतिक उद्यान एवं अनुसंधान संस्थान (TBGRI), त्रिवेंद्रम एवं राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संपदा व्यूरी, नई दिल्ली।
भारत में विशिष्ट अनुसंधान केन्द्र Specialized Research Center in India
1. फसल एवं जैवप्रौद्योगिकी : चावल, गेहूँ, सरसों, चिक मंटर पर 8 केन्द्रों में अनुसंधान जारी है। 2. पीड़िकों व कीटों पर जैविक नियन्त्रक गुन्ला, कपास, दालें, तेल-बीज, पौडको व फोटों के जैविक नियन्त्रण पर अनुसंधान सात केन्द्रों पर जारी है।
3. जैवभार उत्पादन : यूकेलिस्टिस, बॉस, व रोजवुड के वर्षों पर ऊतक संवर्धन जरुनोला सूक्ष्मवर्धन द्वारा व अन्य उत्तम वन वृक्षों को लाखों की संख्या में पादपक (plantiets) तैयार कर वनरोपण करवाया जाता है।
4. समुद्र जैवप्रौद्योगिकी: मछली उत्पादन में 25 टन प्रति हेक्टेयर की वृद्धि हुई हैं। ट्रांसजेनिक मछली परिवर्धन व प्रॉन कृषि पर अनुसंधान जारी है।
5. पशुचिकित्सा जैवप्रौद्योगिकी: दो प्रमुख कुक्कुट रोगों रानीखेत रोग व संक्रामक बुर्सन रोग के लिए निदानात्मक रसायन व वेक्सीनों को बनाने पर शोधकार्य जारी है
6. मानव चिकित्सा जैवप्रौद्योगिकी: DNA प्रोब, एकक्लोनीय प्रतिरक्षी अभिव्यक्ति तंत्र, पुनर्योजी DNA, निदानात्मक उपकरण समूह (diagonostic kit) को विकसित करना, औषध देने की विधियों, हैजा वैक्सीन आदि पर लगातार अनुसंधान कार्य हो रहे हैं। MGIMS, सेवाग्राम वर्धा ने बेनक्राष्टियन फिलेरिऐसिस रोग के लिए तथा NII, नई दिल्ली ने गर्भ परीक्षण के लिए व्यापारिक स्तर पर निदानात्मक उपकरण समूह का निर्माण आरम्भ कर दिया है। भारत इम्यूनोलॉजिकल एवं बायोलॉजिकल कोर्पोरेशन लिमिटेड, बुलन्दशहर तथा इंडियन वेक्सीन कार्पोरेशन लिमिटेड में ओरल पोलिओ वेक्सीन व अन्य वाइरसी रोगों के लिए टीकों का उत्पादन व अनुसंधान किया जा रहा है।
बायोटेक्नोलोजी में भारत की उपलब्धियाँ
1. IMTECH, चण्डीगढ़ में एल्कोहॉल उत्पादन में प्रयुक्त यीस्ट का एक ऐसा प्रभेद बनाया गया हैं जो शर्करा की उच्च सांद्रता व एल्कोहॉल की अधिक सांद्रता दोनों को सहन कर सकता है। अतः छोटे संयंत्र में अधिक एल्कोहॉल को उत्पादित करवाया जा सकता है।
2. चर्म उद्योग में केन्द्रीय चर्म अनुसंधान संस्थान ने चमड़े में ऊपर से बालों को हटाने के लिए जैवप्रौद्योगिकी एन्जाइमी क्रिया विधि का विकास किया है। इस केन्द्र द्वारा निर्मित क्लोरिजाइम का भेड़ व बकरी की खाल पर से बाल उतारने में प्रयुक्त किया जाता है। यह विधि लाइम-सल्फाइड विधि की तुलना में सस्ती व अधिक दक्षता वाली है तथा इस विधि द्वारा चर्म गुणवता भी वैसी ही बनी रहती है।
3. जाधवपुर विश्वविद्यालय, जाधवपुर ने आलू से लेक्टिक अम्ल प्राप्त करने हेतु जैवप्रौद्योगिकी अक्रमण का विकास किया है।
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