जीवाश्म किसे कहते है, जीवाश्म क्या है एवं कैसे बनते हैं? विवेचना कीजिये, जीवाश्म का महत्व What are fossils called, what are fossils and how are they formed? Discuss the importance of fossils
चट्टानों में मिलने वाले पौधों के अवशेषों या शेष चिन्हों को जीवाश्म (Fossil) कहते हैं। फॉसिल (fossil) शब्द की उत्पत्ति यूनानी भाषा के शब्द फोडेरे (fodere) से हुई है जिसका अंग्रेजी में अर्थ होता है “to dig” अर्थात् खोदना। इस प्रकार मूल अर्थ में जो कोई वस्तु या पदार्थ खोदे जाने से प्राप्त होते हैं, वह जीवाश्म (fossil) है। किन्तु आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार वह पदार्थ, जिसमें किसी काल या युग में रहने वाले जीवों की उपस्थिति का प्रमाण मिलता है, उसे जीवाश्म कहते हैं। सर चार्ल्स लायल (Sir charles lyell) के अनुसार जीवाश्म किसी वस्तु अथवा पौधे के शरीर के शेष चिन्ह है जो प्राकृतिक कारणों द्वारा संचित रूप से प्राकृतिक चट्टानों में पाये जाते हैं।
उद्विकास (evolution) की क्रिया में पृथ्वी के परतों में इधर-उधर बिखरे हुए अवशेष जो कि शैल खण्डों में आरक्षित हो गए हैं, जीवाश्म कहलाते हैं।
जीवाश्म का निर्माण (Formation of fossil)
यह वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा जन्तु एवं पादप अवशेषों का जीवाश्मों में परिवर्तन होता है। जन्तु एवं पादपों के जीवाश्म अवसादी चट्टानों में होते हैं क्योंकि जीवाश्म अवसाद (sedimentation) की क्रिया के फलस्वरूप बनते हैं। जीव एवं पादपों के अवशेषों को जीवाश्म के रूप में परिरक्षित होने की प्रक्रिया को जीवाश्मीभवन (Fossilization) कहते हैं। जीवाश्मीभवन की प्रक्रिया से सम्बन्धित निम्न दो सिद्धान्त उल्लेखनीय हैं
1. प्रतिस्थापन सिद्धान्त (Replacement theory)- इस सिद्धान्त के अनुसार जीवाश्मीभवन, पादप अंगों में पाये जाने वाले अणुओं का मिट्टी के घोल में उपस्थित विभिन्न खनिजों के अणुओं द्वारा प्रतिस्थापन की क्रिया द्वारा होता है।
2. अन्तः स्यंदन सिद्धान्त (Infiltration theory)- इस सिद्धान्त के अनुसार जीवाश्मीभवन कोशिका भित्ति द्वारा खनिज पदार्थों के अन्दर प्रवेश कर वहाँ जमजाने (infiltration and precipitation) के कारण होता है। पौधों के भूमि में दब जाने के बाद उनका आंशिक जल विघटन होता है और इससे स्वतंत्र हुई कार्बन, अन्तः स्यंदित कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि से मिलकर इनके कार्बोनेट बनाते हैं। अंतःस्यंदन द्वारा जीवाश्मीभवन की प्रक्रिया कोशिकाओं में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों के विघटन पर निर्भर करती है।
जीवाश्मों के प्रकार (Types of fossils)
जीवाश्मीभवन की प्रकृति के आधार पर जीवाश्म निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं
1. संपीड जीवाश्म (Compression fossils)
ये संभवत: सबसे सामान्य प्रकार के जीवाश्म हैं। इन जीवाश्मों का निर्माण पौधे अथवा उसके किसी अंग के अवसादों (sediments) में दबने के फलस्वरूप हुआ है। दबे हुए अंग अवसादों के दबाव संपीडन के कारण चपटे हो जाते हैं, परन्तु यदि संपीडित पादप अंग पतला व चपटा (जैसा पत्ती) हो तो उनके आकार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता है। ये जीवाश्म अवसादों के बीच एक कार्बनी परत के रूप में मिलते हैं तथा इनमें कोशिका के संरचनात्मक विवरण परिरक्षित नहीं होते हैं ।
2. अश्मी भूताश्म (Petrifaction fossils)-
वे जीवाश्म जिनमें बाह्य स्वरूप (ex (ternal form) तथा आन्तरिक संरचना (internal structure) परिरक्षित हों, अश्मीभूताश्म कहलाते हैं। इनकी कोशिकाएँ सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने पर जीवित प्रतीत होती है। इनका निर्माण पादप ऊतक में लगभग खनिजों के अंतःस्यंदन (infiltration) से होता है।
इसके अतिरिक्त पादप ऊतक के विघटन में निर्मित अनेक यौगिक जैसे कार्बन, कार्बोक्सिलिक अम्ल (carboxylic acid) ह्युमिक अम्ल (humic acid), पायराइट (py rites) के अवक्षेपण में सहायक होते हैं। इस प्रकार के जीवाश्मों में जीवित पादप में पाये जाने वाले कुछ पदार्थ जैसे सेलूलोस, लिग्निन आदि भी पाये गये है।
3. पर्पटाश्म ( Incrustation fossils)-
इस प्रकार के जीवाश्मों में अवसादों (sedi ments) का निक्षेपण सम्पूर्ण पादप काय अथवा उनके कुछ अंगों के चारों ओर एक कठोर आवरण के रूप में होता है। अतः इन जीवाश्मों में पादप अंगों के बाह्य स्वरूप पूर्णत: परिरक्षित रहते हैं। ये पादप अंगों की सतह पर कार्बोनेट आदि खनिज यौगिकों के अवक्षेपण से बनते हैं।
4. मुद्राश्म (Impression fossils)-
ये जीवाश्म अवसादों पर पौधों अथवा उनके अंगों को केवल छाप (impression) होते हैं। अतः इनमें संपीड जीवाश्मों (compres sions) की भाँति कार्बनिक पदार्थ नहीं पाये जाते हैं। इन जीवाश्मों द्वारा पुरावनस्पति के विभिन्न पादप अंगों जैसे पत्ती, पुष्प, स्तम्भ आदि की बाह्य संरचनाओं का अध्ययन में उपयोग किया जाता है।
5. संहत जीवाश्म (Compactation fossils)-
वे जीवाश्म जो पादप अथवा पादप अंगों के परस्पर दाब से बने हों, संहत जीवाश्म (compactation fossils) कहलाते हैं। इनमें परस्पर पादप अंगों के बीच कोई मध्यवर्ती पदार्थ नहीं पाये जाते हैं। कुछ पादप अंग जैसे चर्मिल पत्तियाँ (leathery leaves) तथा कठोर फल व बीज ममीकृत रूप में परिरक्षित हो जाते हैं। इस प्रकार के जीवाश्मों में रासायनिक पदार्थों का अंत:स्यंदन किया जा सकता है।
6. कोल बॉल (Coal balls)-
लगभग गोलीय आकार के अश्मीभूत (petrified) पादप अंग कोल बॉल कहलाते हैं। कोल में उपस्थित अधिकांश जीवाश्म इस रूप में पाये जाते हैं। इन जीवाश्मों का निर्माण दबे हुए पादप अंगों में कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम कार्बोनेट, आयरन सल्फाइड आदि के अंतःस्वंदन से होता है। ये पदार्थ इन पादप अंगों को कोल में परिवर्तित होने से रोकते हैं। अतः ये कोल के बीच कोल बॉल के रूप में पाये जाते हैं। इनका आकार अण्डाकार होता है।
7. कूट जीवाश्म (Pseudo fossils) –
कभी-कभी कुछ चट्टानें किसी पाद अंग अथवा प्राणी का रूप ले लेती है जिसमें इन्हें अनेक पुरा वनस्पति वैज्ञानिकों द्वारा जीवाश्म समझा जाता है। ये कोई पादप अथवा जीव नहीं हैं। ये प्रतिदर्श कूट जीवाश्म कहलाते हैं।
8. ऐम्बर (Amber)-
यह वास्तव में कुछ पुरा शंकुधारी वृक्षों (past coniferous trees) का रेजिन है जो इन पौधों से निकलकर वनों की भूमि में एकत्रित हो गया था। इस रेजिन में अनेक छोटे पौधे व जीव परिरक्षित पाये गये हैं। इसी कारण ऐम्बर को जीवाश्म में सम्मिलित किया गया है।
जीवाश्म अध्ययन का महत्त्व (Significance of fossils study)-
जीवाश्मों का निर्माण धीरे-धीरे समय के अनुसार होता है। विकास के प्रक्रम को समझाने में जीवाश्मों का अध्ययन का विशेष महत्त्व निम्न हैं
1. विकास के पक्ष में प्रमाण (Evidence in favour of evolution)-
जीवाश्मों के अध्ययन से विकासवाद के पक्ष में प्रमाण मिलते हैं। विकासवाद के अनुसार वर्तमान के अधिक विकसित प्राणी भूतकाल में रहने वाले सरल एवं आदिम पूर्वजों से विकसित हुए हैं। भूतकाल तथा वर्तमान के जीवाश्मों में काफी अधिक भिन्नताएँ हैं। जीवाश्मों के इस अनुक्रम से स्पष्ट है कि जीवों में क्रमिक रूप से विकास की क्रिया हो रही है तथा जटिल संरचना वाले जीव सरल संरचना वाले जीवों से उत्पन्न (विकसित) हुए है।
जीवाश्मीय प्रमाण का सबसे अच्छा उदाहरण घोड़े का क्रमिक विकास है। घोड़े के पूर्वजों के जीवाश्म इतनी अच्छी अवस्था में प्राप्त हुए है जिसमें न केवल उसके क्रमिक विकास का ज्ञान प्राप्त हुआ साथ ही उसके वंश वृक्ष की भी जानकारी प्राप्त हो गई। प्रारंभिक घोड़ा इऔहिप्पस की आकृति एवं ऊँचाई आधुनिक कुत्ते के समान थी। इसके अग्र और पश्च पादों में क्रमश: चार और तीन अंगुलियाँ थी। वातावरण एवं स्वभाव के कारण उनमें धीरे-धीरे विकास हुआ। कई अवस्थाओं में गमन करने के बाद उसकी आकृति आधुनिक घोड़े (इक्वस) के समान हो गई।
इओहिप्पस→ मीजोहिप्पस →मेरिकोहिप्पस→ इक्वस
2. जीवाश्म एवं प्रागैतिहासिक जीवन (Fossils and Pre-historical life)
जीवाश्मों द्वारा प्रागैतिहासिक काल के पेड़-पौधों एवं जन्तुओं के सम्बन्ध में लाभप्रद सूचना प्राप्त होती है। जैसे- आर्कियोप्टेरीक्स जन्तु में स्तनी एवं एवीज वर्ग के लक्षण होते थे। भीमकाय शरीर वाले डायनोसौर (Dianosours), एमीनोइट्स (Ammonoites) केवल जीवाश्म अभिलेखों के आधार पर ही जाने जाते हैं।
3. जीवाश्म तथा पुराभूगोल (Fossils and Paleogeography)-
जीवाश्मों की सहायता से पृथ्वी के आदिकालीन भूगोल का पुनः स्थापन सम्भव है। किसी विशेष क्षेत्र में जीवाश्मों के स्वभाव को देखकर उस स्थान की आवासीय स्थिति को बताना संभव है। इसके अतिरिक्त इससे महाद्वीपों के एक साथ जुड़ रहने का प्रमाण भी मिलता है। वृक्षों के जीवाश्म से स्थलीय आवास का तथा कोरल व इकाइनोडर्म के जीवाश्मों से समुद्री वातावरण का पता चलता है।
4. जीवाश्म एवं जलवायु (Fossils and climate)-
जीवाश्म विभिन्न भू-वैज्ञानिक युगों की जलवायु के निर्माण में सहायक होते हैं, जैस रेन्डियर के जीवाश्मों से उस स्थान की ठण्डी जलवायु तथा फर्नी के जीवाश्मों से उस युग की उष्ण जलवायु का पता लगता है। जीवाश्म आयु निर्धारण जीवाश्म की आयु का अनुमान लगाने की विधि को जीवाश्म का आयु अनुमापन कहते हैं। जिसकी सहायता से हम उस समय के जीवधारियों के बारे में जानकर विकास (Evolution) की क्रिया का अध्ययन कर सकते हैं। जीवाश्म की आयु की सहायता से हमें उस चट्टान की भी आयु ज्ञात हो जाती है, जिसमें वह पाया जाता है। सामान्यतः अग्रलिखित तीन विधियों से जीवाश्म की आयु का पता लगाते हैं
- स्ट्रेटिग्रैफी (Stratigraphy)
- बायोस्ट्रैटिग्रैफी (Biostratigraphy)
- रेडियोमेट्री।
1. स्ट्रेटिग्रैफी (Stratigraphy)-
पृथ्वी की चट्टानों में एक के ऊपर एक करके अनेक पर्तें (Strata) पायी जाती हैं। पृथ्वी में जैसे-जैसे खनिज पदार्थों का जमाव होता जाता है वैसे-वैसे एक के ऊपर दूसरी पर्त जमती चली जाती है। इस विधि में विभिन्न पर्तों का क्रमानुसार विश्लेषण किया जाता है। परन्तु इस विधि से जीवाश्म की आयु का सही अनुमान लगा पाना सम्भव नहीं। अनेक पारिस्थितिक कारणों से पृथ्वी की सतह का ह्रास होता रहता है।
इसलिये इस विधि को केवल उन्हीं स्थानों पर प्रयोग किया जा सकता है जहाँ पर नीचली सबसे पुरानी पर्त से लेकर ऊपर की नवीन सतह सुरक्षित हो। इसके अलावा सभी स्थानों पर पृथ्वी की सतह एक समान (Uniform) नहीं होती और अनेक प्राकृतिक कारण जैसे बाढ़ आदि से भी पृथ्वी की पर्तों में परिवर्तन होता रहता है।
2. बायोस्ट्रैटिग्रैफी (Biostratigraphy)-
इस विधि के अन्तर्गत पृथ्वी के विभिन्न स्थानों की पर्तों में पाये गये एक ही प्रकार के जन्तुओं (Fauna), वनस्पतियों (Flora) के जीवाश्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।
3. रेडियोमीटरी (Radiometery)-
सभी रेडियो आइसोटोप्स तत्त्वों में विखण्डन का गुण होता है। इस विधि में रेडियो आइसोटोप्स (Radio isotopes) के विखण्डन की सहायता से ही जीवाश्म की आयु का पता लगाया जाता है। इस विधि को रेडियो एक्टिव क्लाक विधि (Radio active clock method) भी कहते हैं। यह सबसे उपयुक्त विधि है। पृथ्वी की अनेक पर्तों में रेडियो आइसोटोप्स पाये जाते हैं। ये आइसोटोप्स धीरे धीरे प्राकृतिक चक्र में तत्त्वों में परिवर्तित हो जाता है उसे उस पदार्थ का अर्धजीवाश्म (Half life period) कहते हैं। पोटेशियम, यूरेनियम, रुबीडियम तथा कार्बन 14 आदि जैसे अनेक आइसोटोप हैं जिनका रेडियो मीटरी में प्रयोग किया जाता है।
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