खेल विधि – महान शिक्षाशास्त्री प्रो. फ्रोबल ने सर्वप्रथम शिक्षा को पूर्णरूपेण खेल केन्द्रित बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया था। उन्होंने ‘खेल’ के महत्व को स्वीकार करते हुए इस बात पर विशेष बल दिया कि प्राथमिक स्तर पर बालकों को सभी ज्ञान खेल-खेल के माध्यम से ही दिया जाना चाहिए।
यूरोप के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री श्री हेनरी काल्डवेल कुक को खेल विधि से शिक्षण कराने की विधि का जन्मदाता माना जाता है। अतः काल्डवेल कुक के कथनानुसार, “खेल बालक की स्वाभाविक प्रवृति होती हैं, अतः जितना मन बालक खेल में लगता है उतना मन और किसी भी कार्य में नहीं लगता।” उन्हीं के शब्दों में, “विभिन्न विषयों के शिक्षण में खेल विधि का प्रयोग सरलतापूर्वक किया जा सकता है। खेल ही खेल में जो बात बालक सीख जाता है, उसे वह कभी भी नहीं भूल पाता।
प्राथमिक स्तर पर खेल छोटे-छोटे बालकों को आनन्द देने वाली क्रिया है. खेल विधि के माध्यम से क्रिया द्वारा सीखने के सिद्धांत की अनुपालना होती है।
खेल विधि के गुण
- यह बालकों की क्रियाशील बनाती है।
- यह बालकों में प्रतिस्पर्द्धा की भावना पनपाती है।
- यह बालकों का शारीरिक व मानसिक विकास भरती है।
- यह विधि बालकों में परस्पर सहयोग तथा सामाजिक सामंजस्यता स्थापित करना सिखाती है। यह विषय की या प्रकरण की नीरसता को भी सरसता में बदल देती है।
- यह विधि बालकों को प्रकृति के स्वतंत्र वातावरण में रखकर स्व-अनुशासन सिखाती है तथा उनकी नेतृत्व शक्ति को विकसित करती है। यह बालकों को गंभीर कार्य करने को भी तैयार करती है।
- यह विधि एक मनोवैज्ञानिक विधि है, इसमें खेलों के प्रति बालकों में स्वाभाविक रुचि होने के कारण, बालक प्रत्येक खेल को स्व-आत्मप्रेरणा से खेलता है।
- यह बालकों में समूह से कार्य करने की प्रवृति को परिष्कृत करती है तथा अपने विचारों को कार्यक्रम में परिणित करने का अवसर प्रदान करती हैं.
- यह विधि करो और सीखो तथा अभ्यास ही पूर्णता की ओर ले जाता है, पर आधारित है। इसमें बालक शिक्षा प्राप्ति में सक्रिय रूप से भाग लेता है।
- इस विधि द्वारा बालकों में सामूहिकता की भावना, प्रेम, सहानुभूति उदारता तथा सामाजिकता, भाव व दृष्टिकोण को भी विकास होता है।
- इस विधि में शिक्षण कार्य में रोचकता तथा आनन्दता का पूर्णरूपेण समावेश हो जाता है जिसके कारण शैक्षणिक प्रक्रिया तीव्र हो जाती है।
- खेलों के माध्यम से ही हम कठिन विषयों के तथ्यों को शीघ्र व सरलता से समझा सकते हैं। खेल ही खेल से बालक का आत्म-संयम बढ़ता है जो उसको स्वाध्याय की ओर प्रेरित करता है।
- खेल विधि से शिक्षण बालक के मानसिक तनाव को दूर करके उनमें आत्मविश्वास से शिक्षण भाव उत्पन्न करती है।
खेल विधि के दोष / सीमाएं
- यह विधि व्यावहारिक रूप से कठिन है।
- खेल विधि से पाठ्यक्रम के सभी विषयों का तथा सभी प्रसंगों का अध्ययन नहीं कराया जा सकता है। इस विधि में बालकों में व्यक्तिगत स्वार्थ की तथा होड़ की भावना का विकास होता है जो शिक्षण के लिए घातक है व सामाजिकता के विरुद्ध है।
- जो बालक खेल में रुचि नहीं रखते, उनकी क्रियाशीलता शिक्षण के प्रति नगण्य हो जाती है।
- कुछ बालकों का केवल खेल में ही विशेष रुचि या ध्यान रहता है. इसके फलस्वरूप वे अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं दे पाते हैं फलतः वे शिक्षण में पिछड़ जाते हैं।
- जब खेलों को सामूहिक रूप से खेला जाता है तो कुछ प्रतिशत बालकों में आपसी ईर्ष्या की भावना विकसित हो जाती है।
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