एलीलिक जीनअन्योन्य क्रियायें

एलीलिक जीनअन्योन्य क्रियायें , अपूर्ण प्रभाविता और सह-प्रभाविता में अंतर, अपूर्ण प्रभाविता की खोज, सह-प्रभाविता का नियम

मेण्डल के अनुसार प्रत्येक गुण या लक्षण का निर्धारण एक जोड़ी कारकों (factors) या निर्धारकों (determiners) के द्वारा किया जाता है। बीसवीं सदी में बेटसन एवं पन्नेट (Bateson & Punnett, 1905) कोरेन्स (Correns, 1903) क्यूनॉट (Cuenot) आदि वैज्ञानिको ने खोजा है कि जीन सुस्पष्ट अलग-अलग प्रभावों (distinct individual effects) को उत्पन्न करने वाले पृथक-पृथक तत्व नहीं है बल्कि वे एक दूसरे के साथ परस्पर क्रिया करके नए लक्षणप्ररूप उत्पन्न करते हैं।

अब यह स्पष्ट हो चुका है कि किसी गुण के नियंत्रणकारी जीन्स एक जोड़ी से अधिक भी हो सकते हैं, अर्थात् लक्षण की, अभिव्यक्ति जीन्स की सामूहिक क्रिया द्वारा नियंत्रित होती है। इसे जीन अन्योन्यक्रिया (gene interaction) कहते हैं। जीनअन्योन्य क्रियायें मेण्डल के सामान्य नियमों की पालना नहीं करते हैं क्योंकि इनसे प्राप्त होने वाली संतति पीढ़ी में समजीनी एवं फीनोटाइट सम्बन्धी अभिव्यक्ति में बदलाव आ जाता है जसके फलस्वरूप F, पीढ़ी के 3:1 एवं 9 : 3:31 अनुपातों में परिवर्तन हो जाता है।

1. अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete Domtmance)

मेंडल के समस्त प्रयोगों में सभी लक्षणों में सदैव पूर्ण प्रभाविता पाई गई थीं, परन्तु अन्य अनुसंधानकर्ताओं के प्रयोगों से यह पता लगा कि कुछ लक्षणों पर ऐसे जीनों का प्रभाव पड़ता है जिनके युग्म विकल्पी एक-दूसरे के पर प्रभाविता प्रदर्शित करने में असफल होते हैं। F, संतति दो जनकों के बीच की अवस्था दर्शाती है और F, संततियों का बाह्यलक्षण F₂ अनुपात 1: 2:1 होता है, क्योंकि विषमयुग्मनजों का बाह्य लक्षण समयुग्मजों के बाह्य लक्षण से स्पष्ट रुप से अलग होता है।

इस प्रकार के संकरणों में जीन लक्षण एवं बाह्य लक्षण अनुपात एक ही रहता है। इसे अपूर्ण प्रभाविता या मोजेक वंशागति (incomplete dominance or mosaic inhertiance) कहते हैं। गुलोबास, मिराबिलिस जलापा (Mirabilis jalapa) तथा स्नेपड्रेगन, एन्टीराइहनम (Snapdragon-Antirrhinum) में अपूर्ण प्रभाविता दर्शित होती है।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यदि एक लक्षण प्रभाविता प्रदर्शित करता है और दूसरा लक्षण प्रभावित प्रदर्शित नहीं करता है, तो द्विसंकर संकरणों (dihybrid crossscs) में फीनोटाइप अनुपात 3 6:1:2 3 : 1 प्राप्त होता है। स्नैपड्रेगन में, फूल के रंग में अपूर्ण प्रभाविता पाई जाती है और दल (petal) की आकृति में प्रभाविता पाई जाती है

यदि संकरण में दोनों लक्षण अपूर्ण प्रभाविता दर्शाते हैं तो फीनोटाइप अनुपात 1: 2:2 : 4 : 1: 2:1:2: 1 होता है। स्नैपड्रेगन में दो लक्षणों-फूल के रंग एवं पत्तियों की आकृति ने अपूर्ण प्रभाविता दर्शाते हैं.

2. सहप्रभाविता (Codominance) –

जब प्रभावी तथा अप्रभावी दोनों एलील स्वतंत्र रूप से अपना अभिव्यक्ति दर्शाते हैं तो उसे सहप्रभाविता कहते हैं। दोनों एलील की पृथक-पृथक एवं बराबर अभिव्यक्ति के कारण F, पीढ़ी दोनों जनकों से अलग होती हैं। F1 संतति में प्रभावी एवं अप्रभावी जीनो की समान अभिव्यक्ति होती है। दोनों जीन्स के प्रभाव से संतति दोनों जनकों से पृथक होती है।

उदाहरण : मवेशियों में त्वचा का रंग (Coat colour in cattles)

जब शुद्ध लाल बालों वाले पशुओं का संकरण शुद्ध सफेद बालों (rr) वाले पशुओं (RR) कराया जाता है तो F पीढ़ी से घूसर रंग (Rr) दर्शित होता है। यह विशिष्ट रंग कुछ बालों के पूर्णतः लाल एवं कुछ पूर्णतः सफेद होने के कारण दर्शित होता है, F1 पीढ़ी में अन्तप्रजनन कराने पर F2 पीढ़ी में लक्षण एवं जीन प्ररूप अनुपात 1:2:1 प्राप्त होता है।

inhertiance of coat colours in cattles showing codominance

मनुष्यों में रक्त (Blood group in humans)

मनुष्य में जीन (I) का IA विकल्पी A रूधिर वर्ग के लिये उत्तरदायी होता है जबकि IB विकल्पी B रुधिर वर्ग के लिये होता है। इन विकल्पियों के विषमयुग्मजियों (heterozygotes) IAIB का रुधिर वर्ग AB उत्पन्न होता है। अर्थात् IA तथा IB दोनों विकल्पियों का प्रभाव दर्शित होता है। अतः जीन प्रारूप IAIA का रुधिर वर्ग A, IBIB का रुधिर वर्ग B एवं IAIB का रुधिर वर्ग AB होता है। यदि AB रुधिर वर्ग के पुरुष की शादी AB वर्ग की स्त्री से होती है तो उसकी संतानों में औसतन एक का रुधिर वर्ग A (IAIB) तथा एक का B (1B1B) संभावित होगा।

3. घातक जीन्स (Lethal Genes) –

किन्हीं परिस्थितियों में मेण्डेलियन अनुपात इस कारण भी बदल जाते हैं कि युग्मनज (zygote) में जनकों से मिलने वाले एक जीन के दोनों युग्मविकल्पी (alleles) समान होते हैं जो जीव के सामान्य विकास (normal development) एवं कार्यकी आचरण को इस प्रकार प्रभावित करते हैं कि निषेचन अवस्था से लेकर वयस्क होने तक जीवन क्षमता (viablity) प्रभावित होती है, अर्थात् समयुग्मजी अवस्था कभी-कभी जीव के लिए घातक हो जाती है।

ऐसे जीनों को घातक जीन कहते हैं। कुछ जीनों का घातक प्रभाव जीव के जनन अवस्था को प्राप्त होने से थोड़ा पूर्व होता है, इस प्रकार के जीनों को उपघातक (sub-lethal) कहते हैं। कुछ घातक जीन प्रभावी होते हैं।

(i) प्रभावी घातक जीन का उदाहरण

चूहों में त्वचा के रंग में घातक जीन प्रभाव दर्शित होता है। ल्यूसीन क्यूनोट (Lucein Cuenot, 1903) ने पाया कि चूहों की पीली उपजाति में सत्य प्रजनित नहीं होती इसके फलस्वरूप पीले चूहे संकर (hybrid) होते हैं। त्वचा का पीला रंग अन्य सभी रंगों (काला, भूरा व धूसर) पर प्रभावी होता है। पीले चूहों में संकरण करवाने पर संतति चूहों में 3 : 1 अनुपात के स्थान पर पीले व भूरे चूहों का 2 : 1 अनुपात प्राप्त होता है। भूरे (Brown) चूहों में संकरण कराने पर भूरी संतति प्राप्त होती है।

जबकि पीले चूहों व भूरे चूहों में संकरण करवाया जाता है तो सन्तति में पीले एवं भूरे चूहे समान अनुपात से प्राप्त होते हैं। इससे यह परिणाम निकलता है कि पीले चूहे संकर है। समयुग्मजी पीलों की भ्रूणीय अवस्था में ही मृत्यु हो जाती है जिससे F2 का अनुपात 2: 1 होता है।

(ii) अप्रभावी घात जीन का उदाहरण

मक्का, धान, गेहूँ, बाजरे आदि फसली पौधों में भी घातक जीन्स का प्रभाव दर्शित होता है। घातक जीन्स के कारण पर्णहरित (chlorophyll) बनने में असंगतियाँ | (abnormalities) होती है। बाजरे में जीन “C” पर्णहरित के बनने को नियंत्रित करता है।

जब दो हरे जनकों में संकरण कराया जाता है तो F2 पीढ़ी में हरे व रंजकहीन (albino) पौधे 3 : 1 के अनुपात में उत्पन्न होते हैं रंजकहीन अप्रभावी पौधों का नवोदिषद (seeding) एक माह बाद ही मर जाता है जो इनमें बहुत छोटी मूलों के उत्पन्न होने के कारण होता है साथ ही पत्तियाँ लगभग सफेद होती है जो प्रकाश संश्लेषण (पर्णहरिता) के अभाव में अपने भोजन का निर्माण नहीं कर पाती ।

मनुष्य में भी बहुत से घातक जीन ज्ञात हुए हैं जिनके कारण ऐसे रोग उत्पन्न होते हैं जो विकास की विभिन्न अवस्थाओं में घातक होते हैं। उदाहरण थलेसेमिया मेजर (thalasemia major) तथा ऐमोरॉटी जडबुद्धिता (amaurotic idiocy)

FAQ

अपूर्ण प्रभाविता क्या है

विपर्यासी लक्षणों के युग्म में, एक लक्षण दूसरे पर अपूर्ण रूप से प्रभावी होता है। यह घटना अपूर्ण प्रभाविता कहलाती है।

अपूर्ण प्रभाविता की खोज

इसकी खोज कार्ल कोरेन्स (Carl Correns, 1903) ने की थी।

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