उत्परिवर्तन इतिहास एवं परिचय, उत्परिवर्तन का वर्गीकरण, उत्परिवर्तन का सिद्धांत, उत्परिवर्तन का कारण है, उत्परिवर्तन प्रकार लक्षण ओर अनुप्रयोग [mutation History, Theory, Type and Characters]
उत्परिवर्तन का पहला उदाहरण 18वीं शताब्दी में सेथ राइट (Seth wright, 1791) (इंग्लैण्ड के किसान) ने प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने रेवड़ में छोटी टांग वाला नर मेमना देखा। उन्होंने ऐसे मेमनों से एन्कान संतति जाति तैयार की।
उत्परिवर्तन शब्द सर्वप्रथम 1901 में ह्यगो डी बीज (Hugo de vries) द्वारा दिया गया। उन्होंने उत्परिवर्तन को मेण्डलीय पृथक्करण तथा पुर्नसंयोजन के अतिरिक्त वंशागतिशील आनुवंशिक परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने इन परिवर्तनों को उत्परिवर्तकों (mutants) में देखा जिन्हें गिगास (gigas) और नानेल्ला (nanella) कहते हैं। मोर्गन (Morgan, 1909) ने फल मक्खी (ड्रॉसोफिला मेलेनोगेस्टर) में इन उत्परिवर्तनों का अध्ययन किया। लगभग इसी समय अन्य जीवों, जैसे मुक्का, स्नेपड्रेग्न, चूहे और मानव जाति में भी उत्परिवर्तन को पाया।
इस प्रकार किसी जीव के जीन प्रारूप में अचानक उत्पन्न हुए वंशागत परिवर्तन, उत्परिवर्तन कहलाते हैं। ये मेण्डलीय विसंयोजन तथा पुनयोजन के अतिरिक्त होते हैं। उत्परिवर्तन के परिणामस्वरूप संतति का रूप आकार, बनावट, स्वरूप आदि बदल जाते हैं। गुणसूत्रों में उत्पन्न विपथन (aberration) को गुणसूत्री उत्परिवर्तन (chromosomal mutation) कहते हैं। वर्तमान समय में उत्परिवर्तन शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक संकीर्ण स्थिति में केवल उन परिवर्तनों के लिए किया जाता है, जिनके कारण केवल जीन में परिवर्तन होता है। इन्हें प्रायः जीन उत्परिवर्तन (gene mutation) या बिन्दु उत्परिवर्तन ( point mutation ) या कारकीय उत्परिवर्तन ( factorial mutation ) या वास्तविक उत्परिवर्तन ( true mutation ) कहते हैं।
जीन में आये अचानक परिवर्तन को जीन उत्परिवर्तन कहते हैं । जीन के विशिष्ट स्थल में एक न्यूक्लियोटाइड का प्रतिस्थापन दूसरे न्यूक्लियोटाइड युग्म से या निवेश या एक या अधिक न्यूक्लियोटाइड का विलोपन इत्यादि जीन उत्परिवर्तन के प्रमुख कारण है । जीन उत्परिवर्तन आनुवांशिक विभिन्नता उत्पन्न करने का अन्तिम स्रोत है तथा यह उद्विकास ( evolution ) के लिए कच्ची सामग्री प्रदान करता है । उत्परिवर्तन उत्पन्न कर सकने में सक्षम इसकी सबसे छोटी इकाई म्यूटॉन ( muton ) कहलाती है । जो एकल न्यूक्लियोटाइड जितनी छोटी हो सकती है।
उत्परिवर्तनों के अभिलक्षण ( Characteristics of Mutation )
उत्परिवर्तनों के मुख्य लक्षण निम्न प्रकार है
1 . प्रायः उत्परिवर्तन युग्मविकल्पी उनके वन्य प्रारूप ( wild type ) के प्रति अप्रभावी होते हैं लेकिन कुछ उत्परिवर्तन प्रभावी भी होते हैं ।
2. उत्परिवर्तन किसी भी जीन में संभव है , इस प्रकार यह एक यादृच्छिक परिघटना ( random event ) है ।
3. अधिकांश उत्परिवर्तन हानिकारक होते हैं परन्तु 0.1 % उत्परिवर्तन ही लाभदायक होते हैं । उत्परिवर्तन पुनरावर्ती ( recurrent ) होते हैं अर्थात् समान प्रकार के उत्परिवर्तन एक पीढ़ी की अलग – अलग व्यष्टियों ( population ) में संभव हैं ।
4. प्रकृति में स्वतः उत्परिवर्तन किसी अज्ञात कारण से होते हैं तथा इनका परास बहुत कम ( 10-7 से 10-4 के मध्य ) होता है ।
5. उत्परिवर्तन , जीवों की किसी भी परिवर्धन अवस्था में हो सकता है ।
6. कुछ जीन में उच्च उत्परिवर्तन दर होती है , जबकि अन्य में दर कम होती है । उच्च उत्परिवर्तन दर वाले जीन उत्परिवर्तनशील जीन्स ( mutable ) कहलाते हैं ।
7 .जीनोम के कुछ जीन अन्य जीनों की उत्परिवर्तन दर में वृद्धि कर देते हैं , ऐसे जीन्स को उत्परिवर्तनकारी जीन्स ( mutator gene ) कहते हैं । इसके विपरीत कुछ जीन्स अन्य जीनों की उत्परिवर्तन दर को कम कर देते हैं , इन्हें प्रतिउत्परिवर्तनकारी जीन्स ( antimutator genes ) कहते हैं ।
8. एक जीन को वह स्थान जहाँ पर उत्परिवर्तन होता है , तप्त स्थल ( hot spot ) कहलाता है । इन स्थलों के उत्परिवर्तन दर अलग – अलग होती हैं ।
9. जीव के किसी भी ऊतक या कोशिकाओं में उत्परिवर्तन संभव है ।
10. उत्परिवर्तन अम्र एवं उत्क्रम ( forward or reverse ) दोनों दिशाओं में संभव है ।
11. प्रेरित उत्परिवर्तन की दर जीन से एक दूसरे जीन में पर्याप्त भिन्न होती है तथा वातावरणीय कारकों द्वारा प्रभावित होती है ।
12. अधिकांश युग्मविकल्पी बहुप्रभाविता वाले होते हैं ।
13. कुछ भौतिक व रासायनिक कारक उत्परिवर्तनों की दर को बढ़ा देते हैं । इन पदार्थों को उत्परिवर्तनजन ( mutagens ) कहते हैं ।
उत्परिवर्तन के प्रकार (Type of Mutation)
उत्परिवर्तन को विभिन्न प्रमाणों के आधार पर निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है
1. बाहालक्षण प्रभाव की आवृत्ति के आधार पर उत्परिवर्तन ( Mutation Based on Magnitude of Phenotypic Effect )
इस आधार पर उत्परिवर्तन तीन प्रकार के होते हैं—
1. प्रभावी उत्परिवर्तन ( Dominant Mutation )
वे उत्परिवर्तन जो प्रभावी बाह्यलक्षण अभिव्यक्ति दर्शित करते हैं , प्रभावी उत्परिवर्तन कहते हैं । आंख में आइरिस का न बनना प्रभावी उत्परिवर्तन के कारण होता है ।
2. अप्रभावी उत्परिवर्तन ( Recessive Mutation )
अधिकांश उत्परिवर्तन अप्रभावी होते हैं , जो बाह्यलक्षणों में तुरन्त अभिव्यक्त हो जाते हैं । अप्रभावी जीन के उत्परिवर्तन एक या अधिक संतति के पश्चात् दिखाई देते हैं , जब कि उत्परिवर्तित जीन , समयुग्मजी ( homozygous ) अवस्था में उपस्थित हो ।
3. घातक उत्परिवर्तन ( Lethal Mutation )
वे उत्परिवर्तन जो जीव की मृत्यु के लिए उत्तरदायी होते हैं , घातक उत्परिवर्तन कहलाते हैं ।
II . गुणसूत्रों के प्रकार के आधार पर उत्परिवर्तन ( Mutation on the Basis of Type of Chromosomes )
1. ओटोसोमल उत्परिवर्तन ( Autosomal Mutation )
जीवों के सामान्य गुणसूत्रों या ओटोसोम्स ( autosomes ) में उत्पन्न होने वाले उत्परिवर्तन को ओदोसोमल उत्परिवर्तन कहते हैं । उदाहरण – मनुष्य में होने वाल डाउन सिन्ड्रोम रोग ( down syndrome disease ) ।
2. लिंग गुणसूत्री उत्परिवर्तन ( Sex Chromosomal Mutation )
X तथा Y लिंग गुणसूत्रों में होने वाले उत्परिवर्तन को लिंग गुणसूत्री उत्परिवर्तन कहते हैं । जैसे मनुष्यों में हीमोफीलिया ( haemophilia ) ।
III . कोशिका के प्रकार के आधार पर उत्परिवर्तन ( Mutation According to Type of Cells )
1. कायिक उत्परिवर्तन ( Somatic Mutation )
काय कोशिकाओं में होने वाला उत्परिवर्तन कायिक उत्परिर्वन कहलाता है । इसके कारण एक कोशिका या उससे उत्पन्न होने वाली कुछ कोशिकायें में प्रभावित होती है । परन्तु जब यही उत्परिवर्तन प्रारम्भिक भ्रूण में होता है तबू शरीर का बड़ा भाग प्रभावित होता है । ह्यगो डी ब्रिज ने ओइनीथेरा ( oenothera ) में इसकी खोज की ।
2. युग्मक उत्परिवर्तन ( Gametic Mutation )
यह उत्परिवर्तन युग्मकों में होता है । चूँकि ये उत्परिवर्तन आनुवंशिक होते हैं अतः इनका अधिक महत्त्व होता है । इस प्रकार के आनुवंशिक उत्परिवर्तन प्राकृतिक चयन ( natural selection ) के लिए कच्ची सामग्री प्रदान करते हैं ।
IV . उत्परिवर्तन की दिशा के आधार पर ( Mutation on the Basis of Direction )
1. अग्र उत्परिवर्तन ( Forward Mutation )
वे उत्परिवर्तन जिनके कारण सामान्य प्रारूप लक्षणों से असमान्य लक्षण प्ररूप ( abnormal phenotype ) की उत्पत्ति होती है । अधिकांश उत्परिवर्तन अन प्रकार के होते हैं ।
2. उत्क्रम परिवर्तन ( Backward Mutation )
वे उत्परिवर्तन जिसके द्वारा असामान्य लक्षणों से पुनः सामान्य प्रारूप लक्षण प्रारूपों की प्राप्ति होती है । उन्हें उत्क्रम उत्परिवर्तन कहते हैं ।
कृषि में उत्परिवर्तन की उपयोगिता (Applications of Mutations in Agriculture)
उत्परिवर्तनों द्वारा धान, लेग्यूम, सब्जियों व सजावटी पौधों की अनेक नयी फसलों का विकास हुआ है। उत्परिवर्तन द्वारा इनमें, उच्च लब्धि, बैक्टीरिया, कवक व वाइरसों के विरुद्ध प्रतिरोधकता, लवण सहिष्णुता, उच्च तेल मात्रा, चिकित्सीय गुणों को विकसित किया गया है। दिल्ली में स्थित IARI, मुम्बई में BARC, हैदराबाद में स्थित ओसमानिया विश्वविद्यालय, आनुवंशिकी विभाग, लखनऊ में NBRI प्रमुख कृषि संस्थान इस क्षेत्र में कार्य रहे हैं। भारत में कृषि वैज्ञानिकों ने प्रेरित उत्परिवर्तन द्वारा फसलों में सैंकड़ों किस्में विकसित की है।
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